मुहुर्मुह गृणनाति वीतरागं स गुरुपदं भासति सदा।।
दूर करीने एक जीवनुं निजस्वरूप वीतराग छे तेनुं ज वारंवार कथन करे छे. वीतराग
पोते पण अंतरंगमां पोताने वीतराग स्वरूपे अभ्यासे छे–अनुभवे छे, अने बाह्यमां
पण ज्यारे बोले छे त्यारे ‘आत्मानुं वीतराग स्वरूप छे’ ए ज बोल बोले छे. एवा
वीतरागनो (–वीतरागी गुरुनो अथवा वीतराग स्वरूपी आत्मानो) उपदेश
सांभळतां आसन्नभव्य जीवने चोक्कसपणे पोताना वीतराग स्वरूपनी ओळखाण थाय
छे, तेमां जरा य संदेह नथी. जेमना वचन विषे वीतरागतानुं ज कथन छे एवा जैनी
साधुने आसन्नभव्य जीवो गुरु कहे छे; केम के तेमना सिवाय बीजा कोई पुरुष एवा
वीतरागी तत्त्वनो उपदेश करता नथी, तेथी ए पुरुषने ज (–वीतराग स्वरूपनो
अनुभव तथा उपदेश करनारने ज) गुरुनी पदवी शोभे छे, बीजाने शोभती नथी.–
आम निःसंदेहपणे जाणवुं.