Atmadharma magazine - Ank 060
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष पांचमुं : संपादक : आसो
रामजी माणेकचंद दोशी
अंक बार वकील २४७४
श्री गुरु शुं करे?
वीतरागं वीतरागं जीवस्य निजस्वस्वरूपो वीतरागं।
मुहुर्मुह गृणनाति वीतरागं स गुरुपदं भासति सदा।।
जीवनुं पोतानुं निजस्वरूप वीतराग छे, वीतराग छे, वीतराग छे; जेओ ते
वीतराग स्वरूपनुं वारंवार कथन करे छे ते ज सदा गुरुपदे शोभे छे.
××× ××× श्रीगुरु ज्ञानने स्थिरिभूत करीने पोताना आत्माने तो
वीतरागस्वरूप अनुभवे छे; अने ज्यारे कोईने उपदेश पण आपे छे त्यारे अन्य सर्वे
दूर करीने एक जीवनुं निजस्वरूप वीतराग छे तेनुं ज वारंवार कथन करे छे. वीतराग
स्वरूप सिवाय बीजो कोई अभ्यास तेमने नथी, वीतराग स्वरूपनो ज अभ्यास छे.
पोते पण अंतरंगमां पोताने वीतराग स्वरूपे अभ्यासे छे–अनुभवे छे, अने बाह्यमां
पण ज्यारे बोले छे त्यारे ‘आत्मानुं वीतराग स्वरूप छे’ ए ज बोल बोले छे. एवा
वीतरागनो (–वीतरागी गुरुनो अथवा वीतराग स्वरूपी आत्मानो) उपदेश
सांभळतां आसन्नभव्य जीवने चोक्कसपणे पोताना वीतराग स्वरूपनी ओळखाण थाय
छे, तेमां जरा य संदेह नथी. जेमना वचन विषे वीतरागतानुं ज कथन छे एवा जैनी
साधुने आसन्नभव्य जीवो गुरु कहे छे; केम के तेमना सिवाय बीजा कोई पुरुष एवा
वीतरागी तत्त्वनो उपदेश करता नथी, तेथी ए पुरुषने ज (–वीतराग स्वरूपनो
अनुभव तथा उपदेश करनारने ज) गुरुनी पदवी शोभे छे, बीजाने शोभती नथी.–
आम निःसंदेहपणे जाणवुं.
–श्री आत्म–अवलोकन पृ. ६–८
छुटक अंक वार्षिक लवाजम
चार आना त्रण रूपिया
• अनेकान्त मुद्रणालय: मोटा आंकडिया: काठियावाड •