Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA With the permision of the Baroda Govt. Regd No. B. 4787
order No. 30 - 24 date 31 - 10 - 4
शांतिनो उपाय
धर्मी जीवो आत्माना स्वभावने केवो छे जाणे तेनी आ वात चाले छे. जेणे धर्म करवो होय तेणे पोताना
ज्ञानमां आत्मानी यथार्थ किंमत जाणवी पडशे. ज्ञानमां जेनो महिमा लागे तेमां ज्ञान एकाग्र थाय. जो परनो
महिमा करीने त्यां ज्ञान एकाग्र थाय तो ते अधर्म छे अने आत्मानो महिमा समजीने त्यां ज्ञान एकाग्र थाय तो
ते धर्म छे. जेम–जे जीवोने विषयोमां के लक्ष्मी वगेरेमां सुखबुद्धि थई छे ते जीव तेमां एकाग्र थाय छे–जीवनने
जोखममां मूकीने पण ते विषयोमां झंपलावे छे केम के तेने ज्ञानमां तेनो महिमा भास्यो छे, तेम आत्मानो
ज्ञानस्वभाव अनंत सुखस्वरूप छे. परथी जुदो छे–ए स्वभावनो महिमा जो ज्ञानमां समजाय तो बधायनी
दरकार छोडीने ज्ञान पोताना स्वभावमां ठरे अने साची शान्ति प्रगटे; एनुं नाम धर्म छे. परंतु जो ज्ञानमां
जणाता शब्द वगेरे पदार्थो के तेने जाणनारा अल्प बोध जेटली ज आत्मानी किंमत करे तो ते ज्ञान पर विषयोमां
अने पर्यायबुद्धिमां ज अटकी जाय, पण त्यांथी पाछुं खसीने पूर्ण स्वभावमां वळे नहि अने शांति प्रगटे नहि.
हे भव्य! तारे आत्मानी शांति प्रगट करवी छे, तो ते शांति परवस्तुमांथी नहि आवे, पर वस्तुओ
सामे जोवाथी नहि आवे, विकार के क्षणिक पर्याय सामे जोवाथी पण ते शांति नहि आवे, पण ते बधाना लक्षने
छोडीने तारी वर्तमान अवस्थाने त्रिकाळी ज्ञान–स्वभावमां एकाकार कर, तो त्रिकाळी स्वभावना आधारे
अवस्थामां परिपूर्ण शांति प्रगट थाय.
शब्द वगेरे विषयोमां जरा पण ज्ञान नथी तेथी तेनाथी तो आत्मा जुदो छे अने आत्मामां परिपूर्ण
ज्ञान छे, –आत्मा अने ज्ञान जराय जुदा नथी, –आम भेदज्ञान करीने स्वभाव तरफ ढळे तो स्वभावना
आश्रये जीवने सम्यक्मति–श्रुतज्ञान प्रगट थाय, अने अल्पकाळमां भवनो अंत आवे. आ सिवाय जे मति–
श्रुतज्ञान पर लक्षे ज कार्य करे ते मिथ्याज्ञान छे. स्वलक्षे सम्यग्ज्ञान प्रगट कर्या वगर, कोई जीव कषाय घटाडे तो
तेने पापानुबंधी पुण्य बंधाय अने साथे साथे ते ज वखते, आखा आत्मस्वभावना अनादररूप मिथ्यात्वथी
अनंत पाप बांधे अने अनंत भव वधारे.
[श्री समयसार गा. ३९० थी ४०४ उपरना प्रवचनोमांथी]
(अनुसंधान पान ८ नुं चालु)
जेम कोई जीवता राजकुमारने–के जेनुं शरीर कोमळ छे तेने जमशेदपुरनी अग्निनी भठ्ठीमां एकदम नाखी
दे अने तेने जे दुःख थाय तेना करतां अनंतगणुं दुःख पहेली नरके छे, अने पहेली नरक करतां बीजी, त्रीजी
आदि सातमी नरके एक एकथी अनंतगणुं दुःख छे; एवा अनंता दुःखनी प्रतिकूळतानी वेदनामां पडेलो,
महाआकरां पाप करीने त्यां गयेलो, तीव्र वेदनाना गंजमां पडेलो छतां, तेमां कोई वार कोई जीवने एवो
विचार आवे के अरेरे! आवी वेदना! आवी पीडा! एवा विचारो करतां स्वसन्मुख वेग वळतां सम्यग्दर्शन
थई जाय छे. त्यां सत्समागम नथी पण पूर्वे एकवार सत्समागम कर्यो हतो, सत्नुं श्रवण कर्युं हतुं अने
वर्तमान सम्यक् विचारना बळथी, सातमी नरकनी महा तीव्र पीडामां पडलो छतां, पीडानुं लक्ष चूकी जईने
सम्यक्दर्शन थाय छे, आत्मानुं वेदन थाय छे. सातमी नरकमां रहेला सम्यग्दर्शन पामेला जीवने ते नरकनी पीडा
असर करी शकती नथी, कारण के तेने भान छे के मारा ज्ञानस्वरूप चैतन्यने कोई पर पदार्थ असर करी शकतो
नथी. एवी अनंती वेदनामां पडेला पण आत्मानो अनुभव पाम्या छे, तो सातमी नरक जेटली पीडा तो अहीं
नथी ने? मनुष्यपणुं पामीने रोदणां शुं रोयां करे छे? हवे सत्समागमे आत्मानी पिछाण करी आत्मानुभव कर.
आत्मानुभवनुं एवुं माहात्म्य छे के परिषह आव्ये पण डगे नहि ने बे घडी स्वरूपमां लीन थाय तो पूर्ण
केवळज्ञान प्रगट करे, जीवन्मुक्त दशा थाय अने मोक्षदशा थाय; तो पछी मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्दर्शन
प्रगट करवुं ते तो सुगम छे.
श्री समयसार प्रवचनो भाग ३

मुद्रक: चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, मोटा आंकडिया, सौराष्ट्र ता. २५ – १ – ४९
प्रकाशक: – श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया, सौराष्ट्र