महिमा करीने त्यां ज्ञान एकाग्र थाय तो ते अधर्म छे अने आत्मानो महिमा समजीने त्यां ज्ञान एकाग्र थाय तो
ते धर्म छे. जेम–जे जीवोने विषयोमां के लक्ष्मी वगेरेमां सुखबुद्धि थई छे ते जीव तेमां एकाग्र थाय छे–जीवनने
जोखममां मूकीने पण ते विषयोमां झंपलावे छे केम के तेने ज्ञानमां तेनो महिमा भास्यो छे, तेम आत्मानो
ज्ञानस्वभाव अनंत सुखस्वरूप छे. परथी जुदो छे–ए स्वभावनो महिमा जो ज्ञानमां समजाय तो बधायनी
दरकार छोडीने ज्ञान पोताना स्वभावमां ठरे अने साची शान्ति प्रगटे; एनुं नाम धर्म छे. परंतु जो ज्ञानमां
अने पर्यायबुद्धिमां ज अटकी जाय, पण त्यांथी पाछुं खसीने पूर्ण स्वभावमां वळे नहि अने शांति प्रगटे नहि.
छोडीने तारी वर्तमान अवस्थाने त्रिकाळी ज्ञान–स्वभावमां एकाकार कर, तो त्रिकाळी स्वभावना आधारे
अवस्थामां परिपूर्ण शांति प्रगट थाय.
आश्रये जीवने सम्यक्मति–श्रुतज्ञान प्रगट थाय, अने अल्पकाळमां भवनो अंत आवे. आ सिवाय जे मति–
तेने पापानुबंधी पुण्य बंधाय अने साथे साथे ते ज वखते, आखा आत्मस्वभावना अनादररूप मिथ्यात्वथी
अनंत पाप बांधे अने अनंत भव वधारे.
आदि सातमी नरके एक एकथी अनंतगणुं दुःख छे; एवा अनंता दुःखनी प्रतिकूळतानी वेदनामां पडेलो,
महाआकरां पाप करीने त्यां गयेलो, तीव्र वेदनाना गंजमां पडेलो छतां, तेमां कोई वार कोई जीवने एवो
विचार आवे के अरेरे! आवी वेदना! आवी पीडा! एवा विचारो करतां स्वसन्मुख वेग वळतां सम्यग्दर्शन
थई जाय छे. त्यां सत्समागम नथी पण पूर्वे एकवार सत्समागम कर्यो हतो, सत्नुं श्रवण कर्युं हतुं अने
वर्तमान सम्यक् विचारना बळथी, सातमी नरकनी महा तीव्र पीडामां पडलो छतां, पीडानुं लक्ष चूकी जईने
सम्यक्दर्शन थाय छे, आत्मानुं वेदन थाय छे. सातमी नरकमां रहेला सम्यग्दर्शन पामेला जीवने ते नरकनी पीडा
असर करी शकती नथी, कारण के तेने भान छे के मारा ज्ञानस्वरूप चैतन्यने कोई पर पदार्थ असर करी शकतो
नथी ने? मनुष्यपणुं पामीने रोदणां शुं रोयां करे छे? हवे सत्समागमे आत्मानी पिछाण करी आत्मानुभव कर.
आत्मानुभवनुं एवुं माहात्म्य छे के परिषह आव्ये पण डगे नहि ने बे घडी स्वरूपमां लीन थाय तो पूर्ण
केवळज्ञान प्रगट करे, जीवन्मुक्त दशा थाय अने मोक्षदशा थाय; तो पछी मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्दर्शन
प्रगट करवुं ते तो सुगम छे.