Atmadharma magazine - Ank 066
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४७५ : आत्मधर्म : १२१ :
केवा वक्तानो उपदेश सांभळवो योग्य छे?
जेमां लाखो अने करोडोनो वहीवट चालतो होय एवी पेढीनो वहीवट दस रूपियाना पगारवाळो
मंदबुद्धि जीव संभाळी शके नहि. पण मोटा पगारवाळो बुद्धिशाळी जीव होय ते वहीवट संभाळे. तेम जेमने
पूर्ण परमात्मद्रश रूप स्वरूपलक्ष्मी प्रगटी छे एवा श्री वीतरागदेवनी परंपरामां रहीने सम्यग्दर्शन ज्ञान–
चारित्ररूप वीतराग धर्मनो उपदेश करनार जीव श्रद्धा–ज्ञानादि अनेक गुणना धारी होवा जोईए, अने
अध्यात्मविद्यामां पारंगत होवा जोईए. अध्यात्मरसद्वारा पोताना स्वरूपनुं अनुभवन जेने न थयुं होय
एवा जीवो वीतरागी जिनधर्मनो उपदेश यथार्थ आपी शके नहि, अने एवा वक्ता पासेथी शास्त्रश्रवण
करवाथी जीवने आत्मलाभ थाय नहि. माटे यथार्थ आत्मज्ञानी पुरुषने ओळखीने तेमनी पासे
आत्मस्वभावनो उपदेश सांभळवो योग्य छे.
जे वक्ता होय ते प्रथम तो जैनश्रद्धानमां द्रढ होवा जोईए. राग–द्वेषरूप दोष मारी अवस्थामां क्षणिक छे
अने तेने जीतनार मारो त्रिकाळी स्वभाव शुद्ध छे–आवी श्रद्धा होय तेनुं नाम जैनश्रद्धा छे. जे पोताना शुद्ध
स्वभावनी श्रद्धा ज्ञान अने एकाग्रता वडे राग–द्वेष मोहने जीते छे तेने जैनपणुं प्रगटे छे. जेने पोताना
शुद्धात्म–स्वभावनी प्रतीत न होय ते अन्य जीवोने शुद्धात्म स्वभावनो उपदेश कई रीते आपी शके?
कोण जैन छे?
जैन एटले जीतनार; कोने जीतवुं छे अने कोण जीतनार छे ए जाणवुं जोईए. परद्रव्योथी तो आत्मा
भिन्न छे, पण एक आत्मामां बे पडखां छे–एक तो त्रिकाळी स्वभाव छे अने बीजुं वर्तमान अवस्था छे. तेमां
जे त्रिकाळस्वभाव छे ते तो शुद्ध ज छे, तेमां कांई जीतवानुं नथी, पण वर्तमान अवस्थामां दोष छे ते दोषने
जीतवाना छे. कोई पर पदार्थोने जीतवा नथी–जीती ज शकाता नथी, तेम ज कोई पर पदार्थोनी मददथी पण
जीतवुं नथी–जीती शकातुं नथी; पण पोतानी वर्तमान अवस्था परलक्षे थती होवाथी दोषवाळी छे, ते अवस्थाने
स्वभाव तरफ वाळीने दोषने जीतवा छे, अने ते पोताथी थई शके छे. पोताना त्रिकाळी स्वभावना यथार्थ
श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक स्वस्वरूपमां स्थिरता करीने अवस्थाना दोषने जीतवाना छे. ए रीते, जीतनार आत्मा छे. अने
जीतवानुं पण पोतामां ज छे. आ रीते बन्ने पडखांने पोतामां जाणीने त्रिकाळी स्वभावनी रुचिना पुरुषार्थथी
वर्तमान पर्यायना दोषने जे जीते ते जैन छे. आ रीते जैनपणुं कोई वाडामां, संप्रदायमां, वेशमां के शरीरनी
क्रियामां नथी पण आत्मास्वरूपनी ओळखाणमां ज जैनपणुं छे. हुं मारा त्रिकाळी स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान
स्थिरतावडे वर्तमान क्षणिक अवस्थाना दोषने जीतनार छुं एम जे जीव आभ्यंतर मार्गमां श्रद्धावान् छे ते ज
वीतराग धर्मनो उपदेश आपी शके.
हुं मारा स्वभावथी परिपूर्ण छुं, मारा गुणो परिपूर्ण ज छे, गुण कांई घटी गया नथी, अने पर्यायमां
मारा दोषथी विकार छे पण ते विकार मारा गुणस्वभावमां नथी. विकार टाळीने निर्मळ पर्याय बहारथी
लाववानी नथी पण मारा परिपूर्ण गुणो वर्तमान छे तेमां एकाग्रता करतां पर्यायनो विकास थईने निर्मळता
प्रगटे छे. कोई बीजाना कारणे विकार थयो नथी अने कोई बीजाना अवलंबने ते टळतो नथी. आम पोतानी
परिपूर्ण गुणोनी प्रतीत द्वारा, अवस्थाना अवगुणने जाणीने जे टाळे छे ते जैन छे. चोथा गुणस्थाने
सम्यग्दर्शन प्रगटतां वास्तविक जैनपणुं शरू थाय छे अथवा तो सम्यग्दर्शननी सन्मुख जे जीव होय तेने पण
जैन कहेवाय छे; अने तेरमा गुणस्थाने जे जिनदशा प्रगटे छे ते संपूर्ण जैनपणुं छे, तेमने राग–द्वेष जीतवाना
बाकी रह्या नथी. जैनधर्म ए वस्तुनुं स्वरूप छे; जगतना जड–चेतन पदार्थोनुं यथार्थ स्वरूप बतावनार
जैनदर्शन ते विश्वदर्शन छे. संपूर्ण राग–द्वेषने जीतनार पोताना वीतरागस्वरूपनुं जेने भान छे पण हजी पूर्ण
राग–द्वेष जीत्या नथी ते छद्मस्थ जैन छे अने वीतरागस्वरूपना भानपूर्वक जेणे संपूर्ण राग–द्वेष जीत्या छे ते
पूर्ण जैन छे. आवा पुरुषो ज जैनदर्शनना रहस्यना वक्ता थई शके.