Atmadharma magazine - Ank 066
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: ११० : आत्मधर्म : चैत्र : २४७५ :
बपोरे ३ थी ४ माह सुद १४ शनि
पद्मनंदि [गाथा त्रीजी]
धर्मनुं माहात्म्य करवा माटे तेनुं ज्ञान करवुं जोईए. ढोर, कागडानां देह अनंतवार मळे छे, तेमां
मनुष्यदेह मोंघो छे. ते मनुष्यदेहमां जो आत्मानी समजण न करे तो तेनी कांई किंमत नथी. विषयभोगमां तो
कागडा कूतरां य जीवन गाळे छे, मनुष्य थईने पण धर्म न समजे अने भोगमां जीवन गाळे तो तेनी कांई
किंमत नथी. आ शरीरनी तो राख थवानी छे, आत्मा तेनाथी जुदो छे. एवा आत्माने भूलीने जीव रखडे छे,
ने तेने ओळखे तो पोते मुक्ति पामे छे. पण कोई परमात्मानी अकृपाथी रखडता नथी ने परमात्मानी कृपाथी
तरतो नथी.
जेम सरोवरमां रहेनारो हंस, कमळ उपरनी प्रीति छोडीने हंसली उपर प्रीति करे छे, तेम शरीरमां रहेलो
जे आत्मा शरीरादिनी प्रीति छोडीने पोताना आत्मानी प्रीति करे छे ते जीव आ जगतमां धन्य छे! सरोवरमां
कमळो खीलेलां होवा छतां हंसलो पोतानी हंसली उपरनी प्रीति छोडीने तेना उपर प्रीति करतो नथी, तेम आ
चैतन्यरूप हंसलो छे, ने तेने पैसा–मकान वगेरे बहारनी चीजो छे ते पूर्वनां प्रारब्धनुं फळ छे, तेनी प्रीति
छोडीने पोतानो आत्मा समजवानी प्रीति करे तो निर्मळ परिणति प्रगटे ते आत्मानी हंसली छे.
अरे भाई; बे घडी–चार घडी तुं तारा आत्मानो विचार तो कर. तारी तने किंमत नहि ने तुं बीजानी
किंमत करे! ते शोभतुं नथी. बहारनी चीजो तारी नथी, ते तारी साथे नहि आवे. माटे तेनाथी जुदो आत्मा छे
तेनी प्रीति कर. धर्मी जीवने आत्मानी प्रीति अने ध्यान करतां करतां अणिमा–महिमा वगेरे रिद्धि प्रगटे छे, पण
तेओ तेनी प्रीति छोडीने आत्मानी प्रीति करे छे. शरीरनुं रूप मेरु जेवडुं करी नांखे ने कंथवा जेवडुं पण करी
शके, एक लाडवामां करोडो माणसोने जमाडे, शरीरनुं वजन करोडो मण करी शके, उपरथी देवने उतारवो होय
तो उतारे–आवी आवी सिद्धिओ धर्मात्माने प्रगटी होय पण तेनी प्रीति तो संसारमां रखडवानुं कारण छे. धर्मी
जीव तेनी प्रीति करता नथी पण आत्मानी प्रीति करे छे.
एक हतो ब्राह्मण. एकवार जंगलमां तेना हाथमां चिंतामणि रतन आवी गयुं. त्यां जे ते चिंतववा
मांडयो. खावानुं, मकान, पलंग वगेरे मागवा ज मांड्युं. त्यां एक कागडो आव्यो ने तेने उडाडवा तेणे ते
चिंतामणि रतन फेंकी दीधुं, त्यां तरत ज मकान पलंग वगेरे बधुं वींखाई गयुं, ने हतो तेवो थई गयो. तेम आ
मनुष्यदेह अनंतकाळे जीवने मळ्‌यो छे. आ मनुष्यदेह चिंतामणि जेवो छे. तेने रळवामां ने भोगमां गाळे छे,
पण बे घडी आत्मानी समजण करतो नथी. बीजे बधे ठेकाणे डहापण बतावे छे पण आत्मानी समजण तो
करतो नथी, अनंतकाळे मनुष्यदेह मळ्‌यो ने धर्मनी परीक्षा पण करतो नथी. थोडो वखत रह्यो, भाई! हवे तुं
आत्मानी समजण कर. निवृत्ति ले; प्रवृत्ति घटाड. अहो मारी मुक्ति केम थाय? मारे जन्म–मरण जोईतां नथी–
एम जेने अंतरमां भवभ्रमणनो त्रास लाग्यो होय, तेणे आत्मानी समजण करवी. अनंतकाळमां बधुं परख्युं
छे पण आत्माने न ओळख्यो.
“परख्यां माणेक मोतीयां
परख्यां हेम–कपूर
पण आत्मा परख्यो नहि
त्यां रह्यो दिग्मूढ.”
अरे भाई, तारुं एक रुंवाडुं खेंचाय तो य तने दुःख लागे छे, तो आखे आखा माणसने रेंसी नांखवा
ते तो महापाप छे; एवा शिकार वगेरे महापाप करनारा नरकमां जाय छे. मनुष्य थईने आत्मानी दरकार न
करे ने विषय–भोग, क्रोध, कपट, लंपटपणुं वगेरे महा अधर्म करे तेओ मनुष्यपणुं हारीने ढोर ने नरकमां रखडे
छे, कांईक दया, दाननां शुभ कार्य करे तो देव के माणस थाय छे. पुण्य–पापना भाव तो जीवे अनंतकाळथी कर्या
छे, ते कांई नवुं नथी.
जे आत्मवेत्ता होय के आत्मावेत्तानी भक्ति करीने आत्मवेत्ता थवानो कामी होय तेनुं ज जीवन