नथी. तेम ज ज्यां शरीर अने आत्मानो संयोग छूटो पड्यो त्यां “मरण थयुं” एम लोको कहे छे. पण खरेखर
आत्मानो नाश थयो नथी, ने परमाणुओनो पण नाश थतो नथी.
संयोग थाय छे. पण ते प्रारब्ध जड छे. ते प्रारब्ध आत्माना शुभ के अशुभ भावथी बंधाय छे, जे भाव वडे
प्रारब्ध बंधाय ते धर्म नथी. अने ते प्रारब्धना फळमां बहारनो संयोग मळे तेमां पण धर्म नथी. आत्माना जे
शुभ के अशुभ भावथी प्रारब्ध बंधाय ने संयोग मळे ते भाव धर्म नथी. पण असंयोगी आत्मस्वभावनी
श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां चरवुं ते धर्म छे.
भवभ्रमणनो भय लागे के अरेरे! अनंतकाळथी रखडुं छुं हवे आनो क्यांय आरो छे? एम अंतरथी धगश
जागे तो सत्समागमे आत्माने समजे.
धर्ममां बहारनी वात केम आवे? बहारनुं कांई आत्मा करी शकतो नथी. वळी, बहारनी रुचि होवाथी बहारनुं
ज देखाय छे, तेम जो अंतर स्वभावनी रुचि करे तो आ पण बराबर समजाय तेवुं छे. पर वस्तुओ–शरीरनी
क्रिया वगेरे देखाय छे तेने कोण जाणे छे? शरीर–वाणी वगेरे अजीव पदार्थो छे तेने कांई खबर पडती नथी,
पोते ज तेनो जाणनार छे. वळी ‘मने आमां कांई खबर पडती नथी’ ––एम क्यांथी नक्की कर्युं? पोते पोताना
ज्ञानने जाण्या वगर ते नक्की न थाय. पोते पोताना ज्ञानने जाणे छे छतां विश्वास करतो नथी. पोताना ज्ञाननो
तेमज परनो निर्णय करनार पोतानुं ज्ञानसामर्थ्य छे. पोताना ज्ञान सामर्थ्यनो अविश्वास ते ज अधर्म छे.
परनी खबर पण आत्माने ज पडे छे ने पोतानी खबर पण आत्माने ज पडे छे.
ने तेनां फळ भोगववा, विषयो भोगववा, परनो अहंकार करवो–ए बधुं अज्ञानीने सहेलुं लागे छे ने रुचे छे;
तेथी तेवी वात तेने झट समजाय छे, केमके ए तो अनादि संसारथी करी ज रह्यो छे. पण ए बधाथी जुदी आ
आत्मस्वभावनी अपूर्व समजण छे, ते पोताना स्वभावनी वात तेने रुचती नथी. स्वभावनी समजण ज
खरेखर सहेली अने सुखदायक छे.