Atmadharma magazine - Ank 067
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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वै शा ख : संपादक : वर्ष छठ्ठुं
रामजी माणेकचंद दोशी
२ ४ ७ ५ वकील अंक ७ मो
सम्यग्द्रष्टिनी संसारमुक्ति
जेणे पूर्वे आयुष्य बांध्युं न होय एवा अविरत
सम्यग्द्रष्टि पण वैमानिक देव अथवा उत्तम मनुष्यमां ज
जन्मे छे, ए सिवाय बीजे क्यांय जन्मता नथी; तेथी उत्तम
देवपणुं अने उत्तम मनुष्यपणुं–ए बेने छोडीने बाकीना
समस्त संसारना कलेशथी ते मुक्त छे. माटे संसारना
दुःखोथी भयभीत एवा भव्य जीवोए सम्यग्दर्शननी
आराधनामां सदाय तत्पर रहेवुं जोईए.
(सागार धर्मामृत पृ: र६)

प्रश्न:– सम्यग्द्रष्टि सदाय मुक्त केम छे?
उत्तर:– केम के तेने सदाय पोताना मुक्त स्वरूपनो ज
आश्रय होवाथी ते मुक्त ज छे.
छुटक अंक वार्षिक लवाजम
चार आना त्रण रूपिया
• अनेकान्त मुद्रणालय: मोटा आंकडिया: काठियावाड •