Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७५ : आत्मधर्म : १८५ :
रहेती नथी, पण तेनो उपयोग असंख्य समय सुधी लंबाय एवो ज्ञाननो स्वभाव छे. केवळी भगवानने पूरुं
ज्ञान होवाथी तेमनुं ज्ञान एकेक समयमां ज बधुं जाणे छे. पण छद्मस्थने अल्पज्ञान होवाथी तेनो उपयोग
असंख्य समय सुधी लंबाईने कार्य करे छे, ते असंख्य समयनो उपयोग सूक्ष्म एक समयने पकडी शके नहि.
ज्ञानमां एक समय क्यारे पकडया? ज्ञान ज्यारे द्रव्यस्वभावमां लीन थईने पूरुं परिणमे त्यारे ते एक समयने
जाणे छे.
(३७) दरेक जीवने ग्रहण त्याग तो पोताना परिणामनुं ज थाय छे, परनुं ग्रहण त्याग कोई जीव करी
शकतो नथी. अज्ञानीने वस्तुस्वभावनी खबर नथी तेथी ते परनुं ग्रहणत्याग करवानुं माने छे, परंतु तेने य
पोताना परिणामनुं ज ग्रहणत्याग छे, परनुं किंचित्मात्र ग्रहणत्याग तेने नथी; तेने अज्ञानभावने लीधे
पोताना शुद्ध परिणामनो त्याग अने अशुद्ध परिणामनुं ग्रहण छे. ज्ञानीने पोताना शुद्धस्वभावनी श्रद्धाना जोरे
समये समये पोताना शुद्ध परिणामनुं ग्रहण ने अशुद्ध परिणामनो त्याग छे.
ज्ञानीने परिणामनुं ग्रहण त्याग करवानो विकल्प नथी, तेने पर्याय द्रष्टि ज नथी, त्रिकाळ द्रव्यद्रष्टिथी
तेने परिणामनुं ग्रहणत्याग थई जाय छे. एक समयने जोवा जाय तो तो पर्याय द्रष्टि छे, ने पर्यायद्रष्टि ते
मिथ्यात्व छे. तेथी ‘पर्यायनुं ग्रहण’ एम कहेतां ज ज्ञानीने त्रिकाळी द्रव्य स्वभाव तरफ ढळवानुं बने छे.
ध्रुवस्वभाव उपर द्रष्टि रहेतां क्षणे क्षणे निर्मळ पर्याय ऊपजे छे ने विकार टळे छे; तेथी ज्ञानीने ते ते परिणामनुं
ग्रहण ने त्याग कह्युं छे, पण पर्यायना ग्रहण त्याग उपर ज्ञानीनी द्रष्टि नथी.
(३८) द्रव्यमां, गुणमां अने पर्यायमां त्रणेमां वस्तुनी सत्ता छे, वस्तुनुं वास्तु एटले वस्तुनुं रहेठाण
द्रव्य–गुण–पर्यायमां छे. पोताना द्रव्य गुण–पर्यायनी बहारमां वस्तुनी कांई सत्ता नथी तेथी परमां वस्तु कांई करी
शके नहि. आत्माना द्रव्य–गुण–पर्यायमां आत्मानी प्रभुता छे, परवस्तुमां आत्मानी प्रभुता नथी. आत्मामां
पोतानी प्रभुता–सत्ता, अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, ज्ञान, सुख, वीर्य वगेरे
अनंत गुणो छे अने ते गुणोनुं समये समये स्वतंत्र परिणमन छे. आत्माने पोताना गुणोना परिणामनुं
ग्रहणत्याग छे; परंतु आत्मानो कोई गुण के पर्याय बहारमां नथी तेथी बहारनी वस्तुमां कांई पण ग्रहण के
त्याग आत्मा करी शकतो नथी. आत्मा पोताना स्वभावरूप परिणमे के विभावरूप परिणमे स्वभावनी रुचिरूप
परिणमे के परनी रुचिरूप परिणमे, परंतु परवस्तुनुं ग्रहण के त्याग तो तेने कोई रीते नथी. स्वभावरूप परिणमे
तो निर्मळ परिणामने ग्रहे, अने विभावरूप परिणमे तो मलिन परिणामने ग्रहे. पण ज्ञानस्वरूपी आत्माने
परनुं ग्रहणत्याग नथी. ज्ञानस्वरूपी आत्माने आहारनुं ग्रहण नथी, माटे ज्ञानने देह ज नथी. शरीर तो
आहारथी रचाय छे, कांई आत्माना ज्ञानमांथी शरीरनी रचना थती नथी. चैतन्यने आहारनुं ग्रहण नथी माटे
आहारथी रचातुं शरीर पण जीवने नथी.
(३९) अहीं तो आत्माने त्रणे काळे आहार वगरनो ज कह्यो. अज्ञानी लोको केवळज्ञानी भगवानने
पण कोळीयानो आहार होवानुं माने छे. पण केवळीने व्यवहारथी पण आहार कहेवातो नथी. केमके केवळी
भगवानने ज्ञान पूरुं परिणमी गयुं छे, तेमने व्यवहार नय ज रह्यो नथी तेथी तेमने आहार होई ज शके नहि;
केवळीने पर्याय तरफ वलण ज रह्युं नथी तेमज शरीर तरफनुं लक्ष पण नथी, तेमने आहार होई शके नहि.
व्यवहारनय ज रह्यो नथी अने शरीर उपर लक्ष ज नथी तो तेमने आहार केम होय? बीजा रागी जीवोने
व्यवहारे आहार कहेवाय, परंतु केवळीने तो व्यवहार पण नथी. परमार्थथी तो आहार कोई जीवने नथी.
वळी केवळी भगवानने पूर्ण आत्मस्वभावना आश्रये परिणमतां एकेक समयनो सूक्ष्म उपयोग थई
गयो छे, तेने आहार होई ज शके नहि. एकेक समयनो ज्ञाननो उपयोग थई गयो अने परमाणुना एकेक
समयना परिणमनने जाणे छे तेमने आहार न होय. केवळीने तो पूरुं प्रमाणज्ञान थई गयुं छे, तेमने नय होता
नथी. साधक श्रुतज्ञानीने ज निश्चय–व्यवहारनय होय छे. साधक जीवने निश्चयनी मुख्यताथी ज साधकपणुं टकयुं
छे, एक समय पण जो व्यवहारनी मुख्यता थई जाय तो साधकपणुं ज टके नहि. व्यवहारनी मुख्यता थाय तो
पर्यायद्रष्टि थई जाय ने मिथ्यात्व थई जाय. साधकने एक समय पण स्वभावनी एकता वगरनो जतो नथी. जो
एक समय पण स्वभाव तरफनुं मुख्य वलण खसीने पर्याय तरफनुं मुख्य वलण थई जाय तो मिथ्यात्व थाय.
साधकने स्वभावनी एकताथी समये समये निर्मळ परिणामनुं ग्रहण थाय छे.