कहेवो तेने अहीं व्यवहार कह्यो छे. पण आत्मा ज्ञानवडे के राग वडे देहादिनुं कांई करी शके–एवी मान्यता ते व्यवहार
नथी पण मिथ्यात्व छे. अहीं तो ज्ञानस्वभावने ज आत्मा कह्यो छे तेथी ‘आत्मामां राग थाय छे’ ए वात पण काढी
तेटलो व्यवहार छे, त्यां पण अभेद आत्माने लक्षमां लेवानुं प्रयोजन छे. पण ज्ञान अने आत्मा एवा भेदनुं एटले
के व्यवहारनुं लक्ष छोडवा जेवुं छे, तो पछी रागने के शरीरादिने आत्मा कहेवो ते वात तो क्यां रही?
नथी स्वभावरूप परिणमो के विभावरूप परिणमो, पोतानां ज परिणामनां ग्रहणत्याग छे, परद्रव्यमां
ग्रहणत्याग तो जरा पण नथी.
क्यांथी? असंख्य समयना स्थूळ ज्ञानथी स्थूळ पदार्थ ज जणाय छे.
त्याग करतो नथी. ज्ञानी स्वभावना आश्रये परिणमीने निर्मळ परिणामने ग्रहे छे अने अज्ञानी पराश्रये
परिणमीने विकार परिणामने ग्रहे छे.
रुचिथी द्रव्यमां परिणामनी अभेदता करतां निर्मळ परिणाम ज थता जाय छे, तेथी ज्ञानीने निर्मळ परिणामनुं
ग्रहण कह्युं छे. पण एकेक परिणाम उपर ज्ञानीनुं लक्ष नथी, त्रिकाळी द्रव्य उपर ज लक्ष छे. एक समयने पकडवा
मागे तो पण त्रिकाळी द्रव्यमां ज अभेद थवानुं आवे छे; त्रिकाळी स्वभावमां अभेद थया वगर एक समयने
जाणी शके तेवुं ज्ञान सामर्थ्य प्रगटे नहि. एक परिणामने पकडवा जतां उपयोग स्वभावमां अभेद थईने
केवळज्ञान थाय छे ए रीते पोताना द्रव्यस्वभाव तरफ वळतां निर्मळ परिणति थती जाय छे ने रागनो त्याग
थई जाय छे. पूर्ण निर्मळता थतां ज्ञानमां एकेक समये बधा ज पदार्थो ज्ञेय तरीके जणाय छे. स्वभावना लक्षे
ज्ञानीनुं लक्ष नथी. परिणामना ग्रहण–त्याग उपर लक्ष जतां तो रागनुं उत्थान थाय छे; परिणामना लक्षे एकेक
परिणाम जणातां नथी. एक समयना सूक्ष्म परिणामने पकडवा जतां, त्रिकाळी स्वभावनी रुचिना जोरे उपयोग
सूक्ष्म थईने, परिणाम जेमांथी प्रगटे छे एवा परिणामी द्रव्यमां अभेद थाय छे ने केवळज्ञान थाय छे ते ज्ञान
त्रिकाळी द्रव्यने अने एकेक समयना पर्यायने जाणे छे.
उपयोगनी एकता थाय छे ने समये समये निर्मळ परिणाम ऊपजे छे, तेथी ज्ञानीने निर्मळ परिणामनुं ग्रहण थाय
छे ने मलिन परिणामनो त्याग थई जाय छे. आम समये समये थाय छे पण ज्ञानीनुं ज्ञान ते समय समयना
एकाग्रता थई जाय छे.