Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १८४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७५ :
‘ज्ञान’ परद्रव्यने जरा पण ग्रहतुं के छोडतुं नथी एटले ‘आत्मा’ ज परद्रव्यने जरा पण ग्रहतो के छोडतो
नथी–एम समजवुं. ज्ञानने देह नथी एम कहेतां आत्माने ज देह नथी एम समजवुं, अभेद विवक्षाथी ज्ञानने आत्मा
कहेवो तेने अहीं व्यवहार कह्यो छे. पण आत्मा ज्ञानवडे के राग वडे देहादिनुं कांई करी शके–एवी मान्यता ते व्यवहार
नथी पण मिथ्यात्व छे. अहीं तो ज्ञानस्वभावने ज आत्मा कह्यो छे तेथी ‘आत्मामां राग थाय छे’ ए वात पण काढी
नांखी छे. बहारनी वस्तु लेवा–मूकवानुं आत्मा करे–एवो कांई व्यवहार नथी. बहु बहु तो ज्ञानने आत्मा कहेवो
तेटलो व्यवहार छे, त्यां पण अभेद आत्माने लक्षमां लेवानुं प्रयोजन छे. पण ज्ञान अने आत्मा एवा भेदनुं एटले
के व्यवहारनुं लक्ष छोडवा जेवुं छे, तो पछी रागने के शरीरादिने आत्मा कहेवो ते वात तो क्यां रही?
परना ग्रहण–त्यागनी मान्यता छोडीने आवा ज्ञानस्वभावने पकडवानो पुरुषार्थ करीने उपयोगने तेमां
एकाग्र करतां एक समयमां पूरुं जाणे तेवी परमात्मदशा प्रगट थाय छे. –तेनो ज आ विधि कहेवायो छे.
वर स. २४७४ भदरव सद १प
(३४) “ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक छे अने आहार तो कर्म–नोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक छे; तेथी
परमार्थे आत्माने पुद्गलमय आहार नथी. वळी आत्मानो एवो ज स्वभाव छे के ते परद्रव्यने तो ग्रहतो ज
नथी स्वभावरूप परिणमो के विभावरूप परिणमो, पोतानां ज परिणामनां ग्रहणत्याग छे, परद्रव्यमां
ग्रहणत्याग तो जरा पण नथी.
आ रीते आत्माने आहार नहि होवाथी तेने देह ज नथी.”
(श्री समयसार गा ४०प–६–७ नो भावार्थ पृ. ४७प)
ज्ञानस्वरूपी आत्मा पोताना ज्ञान वडे परने ग्रही शकतो नथी. परना त्रिकाळी द्रव्यने, तेना गुणने के
तेना एकेक समयना पर्यायने छद्मस्थ जीव पोताना ज्ञानमां जाणी पण शकतो नथी, तो ते परने ग्रहे के छोडे
क्यांथी? असंख्य समयना स्थूळ ज्ञानथी स्थूळ पदार्थ ज जणाय छे.
आत्मा कां तो त्रिकाळी स्वभावना आश्रये परिणमीने पूर्ण निर्विकार दशारूपे थाय. अने कां तो पर
वस्तुने ग्रहवा–छोडवानी मिथ्या मान्यता करीने विकाररूपे थाय. ए सिवाय आत्मा बीजुं कांई परनुं ग्रहण–
त्याग करतो नथी. ज्ञानी स्वभावना आश्रये परिणमीने निर्मळ परिणामने ग्रहे छे अने अज्ञानी पराश्रये
परिणमीने विकार परिणामने ग्रहे छे.
(३प) ज्ञानी निर्मळ परिणामने ग्रहे छे–एटले शुं? ज्ञानी पण पोताना ज्ञानमां एकेक समयना निर्मळ
परिणामने तो पकडी शकता नथी, परिणामने ग्रहवा उपर तेमनुं लक्ष नथी, पण पोताना अभेद स्वभावनी
रुचिथी द्रव्यमां परिणामनी अभेदता करतां निर्मळ परिणाम ज थता जाय छे, तेथी ज्ञानीने निर्मळ परिणामनुं
ग्रहण कह्युं छे. पण एकेक परिणाम उपर ज्ञानीनुं लक्ष नथी, त्रिकाळी द्रव्य उपर ज लक्ष छे. एक समयने पकडवा
मागे तो पण त्रिकाळी द्रव्यमां ज अभेद थवानुं आवे छे; त्रिकाळी स्वभावमां अभेद थया वगर एक समयने
जाणी शके तेवुं ज्ञान सामर्थ्य प्रगटे नहि. एक परिणामने पकडवा जतां उपयोग स्वभावमां अभेद थईने
केवळज्ञान थाय छे ए रीते पोताना द्रव्यस्वभाव तरफ वळतां निर्मळ परिणति थती जाय छे ने रागनो त्याग
थई जाय छे. पूर्ण निर्मळता थतां ज्ञानमां एकेक समये बधा ज पदार्थो ज्ञेय तरीके जणाय छे. स्वभावना लक्षे
निर्मळ परिणामनुं ग्रहण अने विकारी परिणामनो त्याग थई जाय छे, पण परिणामने ग्रहवा–छोडवा उपर
ज्ञानीनुं लक्ष नथी. परिणामना ग्रहण–त्याग उपर लक्ष जतां तो रागनुं उत्थान थाय छे; परिणामना लक्षे एकेक
परिणाम जणातां नथी. एक समयना सूक्ष्म परिणामने पकडवा जतां, त्रिकाळी स्वभावनी रुचिना जोरे उपयोग
सूक्ष्म थईने, परिणाम जेमांथी प्रगटे छे एवा परिणामी द्रव्यमां अभेद थाय छे ने केवळज्ञान थाय छे ते ज्ञान
त्रिकाळी द्रव्यने अने एकेक समयना पर्यायने जाणे छे.
परनुं कांई करवानी मान्यतारूप मिथ्यात्व भावने सेवे तो स्वभावनी रुचि छूटी जाय ने मलिन परिणामनी
उत्पत्ति थाय छे; एटले अज्ञानीने तो मलिन परिणामनुं ग्रहण छे. ज्ञानीने स्वभावनी रुचि थतां, स्वद्रव्यमां ज
उपयोगनी एकता थाय छे ने समये समये निर्मळ परिणाम ऊपजे छे, तेथी ज्ञानीने निर्मळ परिणामनुं ग्रहण थाय
छे ने मलिन परिणामनो त्याग थई जाय छे. आम समये समये थाय छे पण ज्ञानीनुं ज्ञान ते समय समयना
निर्मळ परिणामने पकडी शकतुं नथी, समय समयना सूक्ष्म परिणामने ग्रहवा जतां त्रिकाळी द्रव्यमां उपयोगनी
एकाग्रता थई जाय छे.
(३६) ज्ञाननी पर्याय तो एक ज समयनी छे, ते पर्याय कांई बे समय