Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 17

background image
: श्रावण : २४७५ : आत्मधर्म : १८३ :
नथी ने देह नथी. आवा शुद्ध चैतन्यस्वरूपी आत्मानी निःशंक श्रद्धा करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे.
ज्ञानस्वरूपी आत्मा अमूर्तिक छे तेने मूर्तिक आहार त्रणकाळ त्रण लोकमां नथी. आवा पोताना
चैतन्यस्वरूपनी रुचि करीने तेनी श्रद्धा तथा ज्ञान करतां रागनी रुचि तेम ज परनी पक्कड छूटी जाय छे ने
स्वभावना आश्रये क्षणे क्षणे ज्ञाननी शुद्धता वधती जाय छे. तेनुं वर्णन आ सर्वे विशुद्ध ज्ञान अधिकारमां कर्युं छे.
(२८) भाई, स्वभावने चूकीने तारा उपयोगनुं वलण परमां थाय छे, तो पण तुं परवस्तुने तो जरा
पण ग्रही के छोडी नथी शकतो, माटे तारा उपयोगने पर तरफथी पाछो वाळीने चैतन्यस्वभावमां झूकाव, तो
चैतन्यमां एकाग्रताथी तारा ज्ञाननी निर्मळता थाय अने एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोक तारा ज्ञानमां ज्ञेय
तरीके प्राप्त थाय–अर्थात् जणाय.
(२९) ज्यारे नदीमां पाणीनुं घणुं पूर आवे अने ऊतरतुं न होय त्यारे कोई माणस पोतानी आंगळी
कापीने तेना लोही वगेरेथी नदीने वधावे छे. थोडीवारमां पूर ऊतरे तो एम माने छे के में मारी आंगळीनुं
लोही आप्युं माटे पूर ऊतरी गयुं. आ तो तद्न स्थूळ मिथ्यात्व छे. आंगळीना एक रजकरणनुं पण आत्माए
ग्रहण कर्युं नथी अने तेनो त्याग पण आत्मा करी शकतो नथी. आंगळीना अनंत रजकणोनी क्रिया स्वतंत्र छे.
अने तेने कारणे पाणीनुं पूर ऊतर्युं नथी. ते जीव पाणीनी एकेक समयनी क्रियाने के आंगळीनी एकेक समयनी
क्रियाने तो जाणतो नथी, स्थूळज्ञानथी मात्र स्थूळ वस्तुने जोतां ‘आ में कर्युं’ एम अज्ञानथी माने छे. आत्माने
आहार के देह ज नथी, तो देहनी क्रिया के देहवडे परनी क्रियाने तो आत्मा कई रीते करे? ज्ञानद्वारा के रागद्वारा
परमां तो जीव कांई करी शकतो ज नथी. परनी जे जे क्रिया थाय ते ज्ञानद्वारा के रागद्वारा थती नथी पण ते
परना कारणे स्वयं थाय छे.
(३०) अहो, भगवान् आत्मा पोताना ज्ञानस्वभावथी भरेलो छे अने सर्वे परथी तद्न उपेक्षावाळो छे.
अस्थिरताथी परलक्ष थाय ने रागादि थाय तेनी पण, स्वभाव द्रष्टिना जोरे उपेक्षा करनारो छे. आवा आत्माने
देह साथे एकमेक मानवो ते खरेखर मिथ्यात्व छे, अने एवा मिथ्यात्वी जीवनी व्रत, तप, पडिमा वगेरे बधी
क्रियाने शास्त्रो खरेखर पाप ज कहे छे; केम के तेना अल्प पुण्य साथे मिथ्यात्वनुं अनंत पाप भेगुं ज बंधाय छे.
(३१) परने टाळुं, परने लउं के परने फेरवुं–ए वात आत्माना स्वभावमां नथी, अने ‘रागने टाळवो’
ए पण पर्याय बुद्धि छे, खरेखर रागने टाळवो ते पण आत्माना स्वभावमां नथी. रागने टाळवानी द्रष्टि ते
पर्यायद्रष्टि छे, पर्यायद्रष्टिथी राग टळतो नथी. पोताना ज्ञान उपयोगने अखंड चैतन्यस्वभावमां वाळीने
एकाग्रता थतां त्यां राग थतो ज नथी.
स्वमां वाळ, बापा! तारा चैतन्य उपयोगने आत्मामां वाळ. बहारमां तुं कांई पण ग्रही के छोडी शकतो
नथी, माटे तारा उपयोगने बहारमां न लंबाव, तारा अंतरस्वभावमां लंबाव अने त्यां एकाग्र था, तो
केवळज्ञान थाय ने तारा संसार–परिभ्रमणना अंत आवे.
जेणे आवा ज्ञानस्वभावने मान्यो अने तेनो आदर कर्यो तेणे अनंत तीर्थंकरो–संतोनुं मान्युं छे ने
तेमनो आदर कर्यो छे, ने तेणे ज पोताना आत्माने मान्यो छे.
(३२) आत्माना श्रद्धा–ज्ञान कोने अवलंबे छे? आत्माना श्रद्धा ज्ञान कोई परवस्तुने–देव–गुरु–शास्त्रने
के रागादिने अवलंबता नथी, पोताना आत्मद्रव्यने ज अवलंबे छे. आत्मद्रव्य अनंत गुणोथी अभेद छे, तेमां
तारा उपयोगने वाळ, तो सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान थाय. अहीं ‘ज्ञानने देहनी शंका न करवी’ एटले के
ज्ञानस्वभावमां निःशंक थवुं–एम आचार्यदेवे आदेश कर्यो छे. आचार्यदेव पोते उपदेशना के लखवाना विकल्पमां
अटक्या नथी, अने सामा जीवने पण उपदेश सांभळवाना विकल्पमां अटकवानुं नथी कहेतां, पण स्वभावमां
वळवानुं कहे छे, –स्वभाव तरफ वळीने निःशंक थवानुं फरमावे छे. घणी अद्भुत रचना छे! छेल्ली गाथाओमां
अद्भुत वर्णन छे. ज्ञानने देहनी शंका न करवी अने अस्थिरताथी देह तरफ लक्ष जतां आहारादिनो जराक राग
थई आवे तो त्यांथी उपयोगने पाछो वाळीने संपूर्णपणे स्वरूपमां ठरवानी भावना छे. आहारादिनुं ग्रहणत्याग
आत्मा करतो नथी–एम श्रद्धानी वात पण साथे साथे जणावी दीधी छे.
(३३) (अहीं टीकामां ‘ज्ञान’ कहेवाथी ‘आत्मा’ समजवो; कारण के, अभेद विवक्षाथी लक्षणमां ज
लक्ष्यनो व्यवहार कराय छे. आ न्याये टीकाकार आचार्यदेव आत्माने ज्ञान ज कहेता आव्या छे.)