Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १८२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७५ :
एकाग्र थतां जे शांत–उपशमरस प्रगटे ते ज आत्मानो आहार छे. आत्माना प्रयत्नथी कर्म के आहारनुं ग्रहण–
त्याग थतुं नथी. त्रिकाळी द्रव्यने ज्ञानमां पकडीने तेमां एकाग्र रहेतां राग छूटी जाय छे एटले के राग थतो ज
नथी, एवो ज्ञानस्वभाव छे. खरेखर रागने छोडवो ते पण आत्मा करतो नथी; आत्मानो त्रिकाळी
ज्ञानस्वभाव छे ते रागने करतो पण नथी के छोडतो पण नथी. आ स्वभावद्रष्टिनी वात छे. स्वभावद्रष्टिथी
आत्मा रागने करतो के छोडतो नथी; एटले ज्ञानस्वभावमां रागनुं पण ग्रहण त्याग नथी, तो पछी
आहारादिनां ग्रहण–त्याग तो क्यांथी होय?
खरेखर स्वभावद्रष्टिथी रागादि पण मूर्त छे. शास्त्रोमां पण तेने अवधिज्ञानना मूर्त विषयमां गण्या छे;
अमूर्तिक चैतन्यनो स्वभाव नथी माटे ते रागादिमूर्त छे, ते रागादिभावो चैतन्यथी विरुद्ध छे. धर्मीने
ज्ञानस्वभावनी द्रष्टिमां ज्ञाननी निर्मळता ज वधती जाय छे, पण तेने मूर्त एवा रागादि भावो वधता नथी
तेथी तेमने रागनुं पण ग्रहण नथी तो परनो खोराक तो ज्ञानीने क्यांथी होय? तेथी आचार्यदेव कहे छे के
ज्ञानने आहार नथी माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी. ज्ञान पोताना स्वभावमां वळ्‌युं त्यां ज्ञानने विकार नथी,
आहार नथी, देह नथी, भव नथी. माटे आत्माने भवनी शंका न करवी.
(२६) आ गाथा उपर श्रीजयसेनाचार्य देवनी टीकामां शिष्य प्रश्न करे छे के हे भगवन्! आत्माने
आहार नथी एम आपे कह्युं; परंतु अनाहारक जीव तो सिद्धदशामां होय अथवा चौदमा गुणस्थाने होय अने
विग्रह गति वखते होय, ए सिवाय तो जीवने आहारक कह्या छे, तो तेने अहीं अनाहारक कई रीते कह्या?
सिद्धने के चौदमा गुणस्थाने तो कोई प्रकारनो आहार होतो नथी, अने विग्रह गतिमां नोकर्मनुं ग्रहण नथी तेथी
तेने अनाहारक कह्या छे. ए सिवाय तो बधा जीवोने आहार होय छे. केवळीभगवानने कवलाहार तो नथी
होतो पण कर्म वर्गणाना ग्रहणरूप आहार तो तेमने य छे. तो अहीं आत्माने त्रिकाळ अनाहारक कई रीते
ठरावो छो? शिष्य एम पूछे छे त्यारे आचार्य भगवान उत्तर आपे छे के–शास्त्रमां जीवने आहारक कह्यो छे ते
तो संयोगनुं ज्ञान कराववा कह्युं छे, मात्र निमित्त–नैमित्तिक संबंधथी जीवने आहारनुं ग्रहण कहेवामां आव्युं छे,
पण खरेखर तो जीव आहार साथे तन्मय थतो नथी माटे ते आहारने ग्रहतो ज नथी. निश्चयस्वभावथी सदाय
सर्वे जीव अनाहारक ज छे. मूर्त आहारने कोई जीव ग्रहतो नथी. शास्त्रोमां निमित्तनां कथन छे. कोई जीव कर्मने
के खोराकने पकडतो नथी. स्वभाव द्रष्टिए सिद्ध के एकेंद्रिय कोई पण जीवने आहारनुं ग्रहण नथी. पण जीव
पोताना चैतन्यस्वभावने नथी पकडतो माटे ते आहारने ग्रहे छे–एम कहेवाय छे. जीव स्वभावरूपे न परिणमे
ने विकाररूपे परिणमे त्यारे तेना निमित्ते कर्म–नोकर्मनुं ग्रहण थाय छे ते संयोगनुं अने विकारना प्रकारोनुं ज्ञान
कराववा व्यवहार–शास्त्रोमां आहारक वगेरेनुं वर्णन आवे छे. परंतु आत्मा जडने ग्रहे छे के आत्मा कोई परने
ग्रही शके छे–ए वात साची नथी. अज्ञानी जीव पण कर्मने के आहारने पकडतो नथी. देव–मनुष्य वगेरे कोई
जीवो एक परमाणु मात्र आहारने के कर्मने ग्रहता नथी. केवळीभगवानने (तेरमा गुणस्थाने) परमाणुओ
आवीने शरीर साथे बंधाय छे तेथी निमित्तथी तेमने आहारक कहेवाय छे, पण तेमना आत्मामां एक रजकणनुं
पण ग्रहण थतुं नथी. अमूर्तिक आत्मा जो जड मूर्त द्रव्यने ग्रहण करे तो ते पोते जड–मूर्त थई जाय. एम कदी
बने नहि.
‘निश्चयथी तो आत्मा आहार न करे पण व्यवहारथी आत्मा आहार करे’ एम अज्ञानी माने छे; पण
ते वात साची नथी. स्वभावथी के विकारथी, निश्चयथी के व्यवहारथी, ज्ञानी के अज्ञानी कोई जीव आहारादि
परवस्तुने ग्रही के छोडी शकतो ज नथी. व्यवहारथी पण आत्मा आहारने तो ग्रहतो नथी, पण व्यवहारथी
आरोप करीने तेम बोलाय छे, आरोपथी बोलाय तेथी कांई वस्तुस्वरूप तेम थई जतुं नथी. माटे ज्ञानस्वरूपी
आत्माने आहार नथी.
(२७) भगवान आचार्यदेव करे छे के–आम छे माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी. अहीं ज्ञानस्वरूपमां
निःशंक थवानुं कह्युं छे. ज्ञानस्वरूपमां जे देहनी शंका करे ते मिथ्याद्रष्टि छे. आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे ते ज्ञाननो
ज उत्पादक छे. आत्माना ज्ञानस्वभावमांथी शरीर ऊपजतुं नथी, ज्ञानथी शरीर टकतुं नथी ने ज्ञानथी शरीर
बदलतुं नथी. जेने आवा ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा नथी अने शरीर मारुं एम माने छे ते निःशंक मिथ्याद्रष्टि छे.
चैतन्य स्वरूपी आत्मा एकला चैतन्यथी ज भरेलो छे, तेमां राग नथी, आहार