Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७५ : आत्मधर्म : १८१ :
माटे अखंड चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा करीने ते स्वभावमां तारा ज्ञान उपयोगने एकाग्र कर, तो ते स्वभावना
आधारे ज्ञाननी निर्मळता थतां थतां एक समयमां बधुंय प्रत्यक्ष जाणे एवुं ज्ञान प्रगटे. अंतरमां पोताना
स्वभावने जुए नहि ने बहारमां पर सामे जोया करे ते जीव बहिरद्रष्टि छे, तेने ज्ञाननी निर्मळता थती नथी.
(२२) जो ज्ञान पूरुं निर्मळ न थाय तो ते पोताने के परने पूरुं जाणे नहि अने तेमां राग थया वगर
रहे नहि. ज्ञानादि बधा गुणोनी अवस्थानुं अस्तित्व तो एक ज समयनुं छे, पण ज्ञाननो एवो स्वभाव छे के
तेनुं कार्य लंबाय छे. ज्ञाननी अवस्था तो एकेक समयनी ज छे पण तेना उपयोगनुं कार्य असंख्य समय सुधी
लंबाय एवी तेनी लायकात छे. जे ज्ञाननो उपयोग राग सहित तेने एक समयमां आखी वस्तु लक्षमां आवती
नथी; राग सहित उपयोग एकेक समयमां जाणवानुं कार्य करी शकतो नथी. ज्ञाननी अवस्थानुं अस्तित्व एक
समयनुं छे–ज्ञान एकेक समये परिणमे छे छतां ते ज्ञाननो उपयोग एकेक समयमां जाणवानुं कार्य न करे तो ते
ज्ञान भेदावळुं छे, स्वभावमां पूरुं अभेद थईने ते ज्ञान कार्य करतुं नथी. पर्यायरूपे ज्ञाननी हयाति एक
समयनी छे पण ज्ञाननो उपयोग असंख्य समयनो छे. ते ज्ञान जो स्वभाव तरफ वळे तो साधक थईने
मलिनता अने निर्मळतानो विवेक करी शके, पण एकेक समयनी मलिनताने के निर्मळताने जाणी शके नहि; तेम
ज ज्ञानादि गुणोमां एकेक समयनुं परिणमन छे–एम सामान्यपणे ज्ञानना ख्यालमां आवे पण एकेक समयने
ते ज्ञान पकडी शके नहि. तो पछी ज्ञान आहारादि परवस्तुने के रागने तो त्रण काळमां छोडे मूके नहि.
(२३) आहार वगेरे अमुक विधिथी लेवा अने अमुक वस्तुनो त्याग करवो एम शास्त्रमां परने लेवा–
मूकवाना कथनो आवे, ते बधां कथनो व्यवहारनां छे एटले के मात्र बोलवा पूरतां छे. ते शास्त्रोना शब्दो तो
जड छे, तेमां कांई आत्मा रहेलो नथी. ते भाषानी पाछळ ज्ञाननो शुं आशय हतो ते आशयने समजे तो ते
केवळी भगवानने, ज्ञानीओने अने शास्त्रने समज्यो कहेवाय; मात्र भाषाना शब्दोने ज पकडे तो तेने ज्ञानीना
कथननो आशय समजाय नहि. अनंत गुणना पिंड आत्माने पकडे नहि ने मात्र भाषाने पकडे तो तेणे
स्वभावने छोडीने परनी ज पक्कड करी छे, स्वभावना ज्ञान वगर परनुं यथार्थ ज्ञान थशे नहि. चरणानुयोगमां
निमित्तनी अपेक्षाए परवस्तुने लेवा–मूकवानां कथनो आवे, पण ‘आत्मा परवस्तुमां जरा पण ग्रहण–त्याग
करी शकतो नथी’ एवो वस्तुस्वभाव छे ते लक्षमां राखीने तेनो आशय समजवो जोईए.
(२४) आत्माना ज्ञानस्वभावनी रुचिथी स्वभावमां अभेदता थई, तेथी सम्यग्ज्ञान थयुं–साधकदशा
थई–धर्मी थयो, पण हजी स्थिरताथी ज्ञाननी स्वभावमां अभेदता न थाय त्यां सुधी राग थाय छे अने ज्ञान
एक समयने जाणतुं नथी. बहारमां प्रभु पासे चोखा मूकवा वगेरे क्रिया तो कोई आत्मा स्वभावथी के विकारथी
पण करवा समर्थ नथी. हुं परनुं करुं–एवी ऊंधी मान्यताथी के राग–द्वेषथी पण परवस्तुने तो जीव कांई ज करी
शकतो नथी. अज्ञानी जीव रागादिने ज पोतानुं स्वरूप माने छे तेथी रागथी जुदो पडीने श्रद्धारूपे आत्मामां
अभेद थतो नथी, अने ज्ञानीए श्रद्धाथी तो आत्मस्वभावमां अभेदपणुं प्रगट कर्युं छे पण हजी स्थिरताथी
आत्मामां अभेदपणुं थयुं नथी त्यां सुधी तेने राग थाय छे; परंतु अज्ञानी के ज्ञानी रागना सामर्थ्यथी पण
परमां कांई ग्रहण–त्याग करवा असमर्थ छे. आत्मा वडे परनुं ग्रहण–त्याग थवुं अशक्य छे. आवा
आत्मस्वभावने जाणे तो परमांथी पाछुं खसीने ज्ञान पोताना स्वभावमां ठरे, अने समये समये अनंती
विशुद्धता वधती जाय, राग टळतो जाय अने निमित्तरूप कर्मो खरतां जाय. –आ ज संवर–निर्जरारूप धर्म छे, ने
आ ज मोक्षनो मार्ग छे.
× × × × × ×
(२प) ज्ञान परद्रव्यने जरा पण ग्रहतुं के छोडतुं नथी–एम कह्युं; हवे कहे छे के ज्ञान आहारक नथी माटे
ज्ञानने देहनी शंका न करवी:–
‘वळी परद्रव्य ज्ञाननो (अमूर्तिक आत्मद्रव्यनो) आहार नथी, कारण के ते मूर्तिक पुद्गलद्रव्य छे;
अमूर्तिकने मूर्तिक आहार होय नहि. तेथी ज्ञान आहारक नथी. माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी.’
(समयसार पृ. ४७प)
आत्मानो स्वभाव अमूर्तिक छे, तेनुं ज्ञानअमूर्तिक छे, ते स्वभावमां भेद पडीने राग थाय तो ते पण
अमूर्त छे; ते मूर्त आहारने ग्रहतो नथी. कर्म–नोकर्मरूप आहार ज्ञानने नथी. वर्तमान ज्ञान उपयोगने त्रिकाळी
स्वभावमां वाळीने