Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १८० : आत्मधर्म : श्रावण : २४७५ :
पोते तो ज्ञानस्वरूप छे. हाथ तो परमाणुओनो पिंडो छे, अने डुंगळी देखाय छे ते पण परमाणुओनो पिंड छे.
ते डुंगळीमां असंख्यात औदारिक शरीर छे, ते एकेक शरीरमां अनंत जीवो रहेला छे, एकेक जीवमां अनंत गुणो
छे ने ते एकेक गुणमां अनंत पर्यायो छे. तो शुं एमांथी कोई द्रव्य–गुण के पर्याय आ हाथना परमाणुमां आवी
गया? के हाथनी जग्याए रहेला आत्माना प्रदेशमां ते आवी गया? –के रागमां आवी गया? –के ज्ञानमां
आवी गया? एम तो थतुं नथी, तो पछी आत्माए डुंगळीने कई रीते लीधी? हाथनी ऊंची–नीची थवानी क्रिया
पण आत्मा करता नथी. अज्ञानी जीव पोताना चैतन्यना अस्तित्वने चूकी गयो छे, ते ज्ञानना के रागना एकेक
समयना कार्यने पण जाणतो नथी, ने परमां पण एकेक समयमां तेनुं स्वतंत्र परिणमन थाय छे तेने जाणतो
नथी, छतां परने पकडवानुं माने छे ते पोते पोताना अज्ञान भावमां पकडाई जाय छे.
छद्मस्थ ज्ञानी के अज्ञानी कोई जीव एक समयने पकडी शकता नथी जाणी शकता नथी; पण अज्ञानी
जीव परवस्तुनुं ग्रहण त्याग हुं करुं एम मानीने अज्ञानमां पकडाय छे, परना अहंकारथी तेनुं ज्ञान हीणुं हीणुं
थतुं जाय छे. अने ज्ञानी तो पोताना स्वभावमां ज ज्ञाननी एकता करीने ते स्वभावना आश्रये समये समये
ज्ञाननी शुद्धता वधारे छे; ने ए रीते ज्ञाननी शुद्धता वधतां वधतां एक समयने पण जाणी शके एवुं निर्मळ
ज्ञान–केवळज्ञान–तेमने प्रगटे छे. आत्मानो आवो ज्ञानस्वभाव छे. ए सिवाय कोई राग के परनुं करवानो
आत्मानो स्वभाव नथी.
(१९) ज्यां आवो आत्मानो ज्ञान–स्वभाव रुचिमां आव्यो त्यां बधा गुणोनी अवस्था निर्मळ थती
जाय छे एटले के सर्व विशुद्धि थती जाय छे, सर्व अवस्थाओ एक करतां बीजी वधारे निर्मळ थती जाय छे, ए
रीते स्वभावनी रुचिना जोरे सर्व अवस्थाओमां निर्मळता वधतां वधतां पूर्ण दशा थाय छे, ते ज्ञान त्रणकाळ
त्रणलोकने एक समयमां विकार रहित जाणे छे, तेमां जराय आकुळता नथी, अधूराश नथी, जे पूर्णता थई ते
कायम टके छे, फरीने तेवी पूर्णता करवी पडती नथी, पण सदा पूरुं–पूरुं परिणमन थया ज करे छे. एवा
स्वभावरूपे परिणमनथी पण आत्मा परने तो ग्रही के छोडी शकतो नथी.
(२०) एक रजकणनी अवस्था लेवी के मूकवी ते तो जीव करी शकतो नथी; पण एक अवस्था जाणवी
होय तो ते पण, केवळज्ञानरूपे पोतानो स्वभाव थाय तो ज जणाय छे, परना लक्षे जणाती नथी. आ रीते एक
अवस्थानुं ज्ञान करवा माटे पण पोताना अखंड स्वभाव तरफ ढळवानुं ज आवे छे. पर सामे जोवाथी राग
थाय छे, राग वखते द्रव्यने अने ज्ञान अवस्थाने भेद पडे छे तेथी ज्ञाननी पूरी दशा थती नथी अने ज्ञान
द्रव्यगुणने के एक पर्यायने प्रत्यक्ष जाणी शकतुं नथी. परलक्ष छोडीने ज्ञान पोताना स्वभावमां ढळतां द्रव्य अने
पर्यायनी कता थाय छे ने राग टळीने पूरुं ज्ञान प्रगटे छे, ते ज्ञान एक समयमां पोताना द्रव्य गुण–पर्याय
त्रणेने प्रत्यक्ष जाणे छे ने तेमां परना द्रव्य–गुणपर्याय पण जणाई जाय छे. आवो ज पोतानो ज्ञानस्वभाव छे.
तेनी श्रद्धाथी ज धर्म थाय छे. श्रद्धाना जोरे चैतन्यस्वभावमां एकता थतां सहेजे ज्ञाननी अवस्था निर्मळ थती
जाय छे ने राग टळतो जाय छे. तेनुं वर्णन आ सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकारमां कर्युं छे.
(२१) हे जीव! श्रद्धानी रुचिमां आखा चैतन्यस्वभावने ले. तारा ज्ञाननी एवी नबळी दशा छे के ते
ज्ञान एक समयने पकडी शकतुं नथी. एक समयमां आखुं तत्त्व आवी जतुं नथी, अने ते एक समयनी
अवस्थाने ज्ञान पकडी पण शकतुं नथी.
श्रावक शुं करे?
हे श्रावक! संसारना दुःखोनो क्षय करवा माटे परम शुद्ध सम्यक्त्वने धारण करीने अने
तेने मेरु पर्वत समान निष्कंप राखीने तेने ज ध्यानमां ध्याव्या करो. मोक्षपाहुड–८६
सम्यक्त्वथी ज सिद्धि
अधिक शुं कहेवुं? भूतकाळमां जे महात्मा सिद्ध थया छे अने भविष्यकाळमां सिद्ध थशे
ते बधुं आ सम्यक्त्वनुं ज माहात्म्य छे–एम जाणो. मोक्षपाहुड–८८