ते डुंगळीमां असंख्यात औदारिक शरीर छे, ते एकेक शरीरमां अनंत जीवो रहेला छे, एकेक जीवमां अनंत गुणो
छे ने ते एकेक गुणमां अनंत पर्यायो छे. तो शुं एमांथी कोई द्रव्य–गुण के पर्याय आ हाथना परमाणुमां आवी
गया? के हाथनी जग्याए रहेला आत्माना प्रदेशमां ते आवी गया? –के रागमां आवी गया? –के ज्ञानमां
पण आत्मा करता नथी. अज्ञानी जीव पोताना चैतन्यना अस्तित्वने चूकी गयो छे, ते ज्ञानना के रागना एकेक
समयना कार्यने पण जाणतो नथी, ने परमां पण एकेक समयमां तेनुं स्वतंत्र परिणमन थाय छे तेने जाणतो
नथी, छतां परने पकडवानुं माने छे ते पोते पोताना अज्ञान भावमां पकडाई जाय छे.
थतुं जाय छे. अने ज्ञानी तो पोताना स्वभावमां ज ज्ञाननी एकता करीने ते स्वभावना आश्रये समये समये
ज्ञाननी शुद्धता वधारे छे; ने ए रीते ज्ञाननी शुद्धता वधतां वधतां एक समयने पण जाणी शके एवुं निर्मळ
ज्ञान–केवळज्ञान–तेमने प्रगटे छे. आत्मानो आवो ज्ञानस्वभाव छे. ए सिवाय कोई राग के परनुं करवानो
रीते स्वभावनी रुचिना जोरे सर्व अवस्थाओमां निर्मळता वधतां वधतां पूर्ण दशा थाय छे, ते ज्ञान त्रणकाळ
त्रणलोकने एक समयमां विकार रहित जाणे छे, तेमां जराय आकुळता नथी, अधूराश नथी, जे पूर्णता थई ते
कायम टके छे, फरीने तेवी पूर्णता करवी पडती नथी, पण सदा पूरुं–पूरुं परिणमन थया ज करे छे. एवा
स्वभावरूपे परिणमनथी पण आत्मा परने तो ग्रही के छोडी शकतो नथी.
थाय छे, राग वखते द्रव्यने अने ज्ञान अवस्थाने भेद पडे छे तेथी ज्ञाननी पूरी दशा थती नथी अने ज्ञान
द्रव्यगुणने के एक पर्यायने प्रत्यक्ष जाणी शकतुं नथी. परलक्ष छोडीने ज्ञान पोताना स्वभावमां ढळतां द्रव्य अने
पर्यायनी कता थाय छे ने राग टळीने पूरुं ज्ञान प्रगटे छे, ते ज्ञान एक समयमां पोताना द्रव्य गुण–पर्याय
त्रणेने प्रत्यक्ष जाणे छे ने तेमां परना द्रव्य–गुणपर्याय पण जणाई जाय छे. आवो ज पोतानो ज्ञानस्वभाव छे.
तेनी श्रद्धाथी ज धर्म थाय छे. श्रद्धाना जोरे चैतन्यस्वभावमां एकता थतां सहेजे ज्ञाननी अवस्था निर्मळ थती
जाय छे ने राग टळतो जाय छे. तेनुं वर्णन आ सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकारमां कर्युं छे.
अवस्थाने ज्ञान पकडी पण शकतुं नथी.