Atmadharma magazine - Ank 070
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७५ : आत्मधर्म : १७९ :
मूकवानी क्रिया करी शकतो नथी. अने ते रागवाळुं ज्ञान परनी वर्तमान वर्तती अवस्थाने के पोतानी श्रद्धा
वगेरेनी वर्तमान अवस्थाने पकडी शकतुं नथी. शांति, श्रद्धा, पुरुषार्थ वगेरे गुणोनी वर्तमान दशा शुद्ध छे के
नहि, ते असंख्य समये ज्ञान जाणे छे. ज्ञाननो स्वभाव एक समये जाणवानो छे ने श्रद्धादि पण एकेक समये
परिणमे छे, पण रागवाळो उपयोग एक समयमां जाणतो नथी अने एक समयने पकडी शकतो नथी. आवो
आत्मानो ज्ञान स्वभाव कोई पर वस्तुने पकडे के छोडे ए वात द्रव्यमां, गुणमां के पर्यायमां नथी.
(१४) अहो, साधक जीवनुं स्वभावमां भळेलुं ज्ञान पण पोतानी एकेक समयनी पर्यायने पकडतुं नथी,
तो ते ज्ञान रागने के परने पकडे–एम कहेनार तो आत्माना ज्ञानस्वभावने जाणतो नथी, ते वीतरागना
शासनने, केवळी भगवानने, संत मुनीओने के तेमनी वाणीने पण जाणतो नथी. आ वात सम्यग्दर्शननी छे.
आत्मानो ज्ञानस्वभाव जेवो छे तेवो ज्ञानमां जाणे तो सम्यग्दर्शन थाय. जेम लौकिकमां कहेवाय छे के ‘टचली
आंगळीए मेरूपर्वत तोळ्‌यो’ तेम अहीं ज्ञान द्वारा आखा सत्ने तोळवानी–मापवानी वात छे; एक समयनी
श्रद्धामां त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनी प्रतीति करवानी आ वात छे. ते माटे आत्मानी रुचि अने अनंत पुरुषार्थ
जोईए. चैतन्यस्वभाव जेवो छे तेवो ज्ञानना मापमां आव्या वगर धर्म थाय नहि.
(१प) अज्ञानी परने लेवा–मुकवानुं माने छे ते मिथ्यात्व छे. ते जीव ज्ञानस्वभावने चूकीने राग–द्वेषनो
कर्ता थाय छे पण परने तो लई के मूकी शकतो नथी. राग वखते परने जाणवानुं पण सामर्थ्य ज्ञानमां नथी तो
ते पर वस्तुने तो ले के मूके क्यांथी? परना ग्रहण–त्यागरहित ज्ञानस्वभावना भान पछी, चारित्रनी
अस्थिरताना दोषथी जे रागादि थाय तेनाथी पण परनुं ग्रहण के त्याग आत्मा करी शकतो नथी.
आत्मा ज्ञान स्वभाव छे, ते प्रायोगिरुगुणथी के वैस्त्रसिक गुणथी पण परनुं कांई ग्रहण–त्याग करी
शकतो नथी; एटले आत्मा रागादि विकाररूपे परिणमे के ज्ञानस्वभावरूपे परिणमे, पण परनुं तो कांई ज
ग्रहण–त्याग ते करी शकतो नथी.
(१६) जेने आत्माना ज्ञान स्वभावनी खबर नथी एवा अज्ञानीओ परनुं कांई करवाथी के देहना
बळथी आत्मानी मोटाई मनावे छे. एक एवी वात आवे छे के “महावीर प्रभुना जन्माभिषेक वखते ईन्द्रने
शंका पडी के ‘भगवाननुं शरीर पाणीनी धारा केम सहन करी शकशे?’ त्यारे भगवाने ईन्द्रने ते शंका मटाडवा
माटे पोताना पगनो अंगूठो दाबीने आखो मेरु पर्वत डगमगाव्यो!” ––जुओ, आ बंने वात तद्न जूठी छे.
पहेलांं तो ईन्द्र सम्यग्द्रष्टि छे, तेने भगवानना बळनी शंका पडे नहि, अने भगवान अंगूठो दाबीने मेरु
चलावे नहि. मेरु पर्वत तो शाश्वत स्थिर छे, ते डगे नहि. जेने आत्मानी द्रष्टि छूटीने देहद्रष्टि थई तेनुं ए कथन
छे. तेओ चैतन्यबळनुं माहात्म्य चूकया तेथी शरीरबळथी महत्ता वर्णववा गया छे; तेमां पण भूल छे.
तीर्थंकरदेव बाळकपणाथी पण सम्यग्द्रष्टि ज होय छे.
(१७) अहीं परनुं तो ग्रहण के त्याग करवानी वात नथी, पण परनी अवस्थाने जाणवानुं पण
स्वभाव तरफनी एकाग्रता वगर बनतुं नथी. जे अवस्था स्वभावमां ढळती नथी ते अवस्था एकेक समयने
जाणी शकती नथी. स्वभावमां एकाग्र थतां थतां, जे एक समयनी वर्तमान अवस्था वर्ते छे तेने ज्ञेय करवा
जाय तो ज्ञाननो उपयोग सूक्ष्म थईने स्वभावमां ढळे छे, ने स्वभावनी एकाग्रताथी केवळज्ञान प्रगटे छे, ते
केवळज्ञान त्रिकाळी द्रव्यगुण सहित एकेक समयनी अवस्थाने पण जाणे छे.
आत्मामां आनंद गुण त्रिकाळ छे, पण तेनुं परिणमन एकेक समयनुं छे. एक समयमां त्रिकाळी आनंद
आवतो नथी, आनंदनो भोगवटो समय समयनो छे. साधकने एकेक समयना आनंदनो भोगवटो छे पण ते
एकेक समयना आनंदने ज्ञान पकडी शकतुं नथी. समय–समयनुं वेदन पकडवा जतां, ते समय समयनी अवस्था
जेमांथी आवे छे एवा द्रव्य तरफ ज्ञान ढळी जाय छे. अने ते द्रव्यना आश्रये एवुं ज्ञान प्रगटे छे के एकेक
समयमां द्रव्य गुण–पर्याय बधाने जाणे. ते ज्ञान त्रण काळना आनंदने एक समयमां जाणी ल्ये छे, पण एक
समयमां त्रणकाळनो आनंद अनुभवातो नथी. पोताना आनंदनी बे समयनी अवस्थाने पण आत्मा भेगी
करी शकतो नथी, तो पछी आत्मा परने ल्ये के मूके–ए वात तो क्यां रही?
(१८) अज्ञानी एम माने छे के ‘में हाथमां डुंगळी लीधी.’ हवे अहीं विचारो के में एटले कोणे? हाथ
एटले शुं? ने डुंगळी एटले शुं?