वगेरेनी वर्तमान अवस्थाने पकडी शकतुं नथी. शांति, श्रद्धा, पुरुषार्थ वगेरे गुणोनी वर्तमान दशा शुद्ध छे के
नहि, ते असंख्य समये ज्ञान जाणे छे. ज्ञाननो स्वभाव एक समये जाणवानो छे ने श्रद्धादि पण एकेक समये
परिणमे छे, पण रागवाळो उपयोग एक समयमां जाणतो नथी अने एक समयने पकडी शकतो नथी. आवो
शासनने, केवळी भगवानने, संत मुनीओने के तेमनी वाणीने पण जाणतो नथी. आ वात सम्यग्दर्शननी छे.
आत्मानो ज्ञानस्वभाव जेवो छे तेवो ज्ञानमां जाणे तो सम्यग्दर्शन थाय. जेम लौकिकमां कहेवाय छे के ‘टचली
आंगळीए मेरूपर्वत तोळ्यो’ तेम अहीं ज्ञान द्वारा आखा सत्ने तोळवानी–मापवानी वात छे; एक समयनी
श्रद्धामां त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनी प्रतीति करवानी आ वात छे. ते माटे आत्मानी रुचि अने अनंत पुरुषार्थ
जोईए. चैतन्यस्वभाव जेवो छे तेवो ज्ञानना मापमां आव्या वगर धर्म थाय नहि.
ते पर वस्तुने तो ले के मूके क्यांथी? परना ग्रहण–त्यागरहित ज्ञानस्वभावना भान पछी, चारित्रनी
अस्थिरताना दोषथी जे रागादि थाय तेनाथी पण परनुं ग्रहण के त्याग आत्मा करी शकतो नथी.
ग्रहण–त्याग ते करी शकतो नथी.
शंका पडी के ‘भगवाननुं शरीर पाणीनी धारा केम सहन करी शकशे?’ त्यारे भगवाने ईन्द्रने ते शंका मटाडवा
पहेलांं तो ईन्द्र सम्यग्द्रष्टि छे, तेने भगवानना बळनी शंका पडे नहि, अने भगवान अंगूठो दाबीने मेरु
चलावे नहि. मेरु पर्वत तो शाश्वत स्थिर छे, ते डगे नहि. जेने आत्मानी द्रष्टि छूटीने देहद्रष्टि थई तेनुं ए कथन
छे. तेओ चैतन्यबळनुं माहात्म्य चूकया तेथी शरीरबळथी महत्ता वर्णववा गया छे; तेमां पण भूल छे.
तीर्थंकरदेव बाळकपणाथी पण सम्यग्द्रष्टि ज होय छे.
जाणी शकती नथी. स्वभावमां एकाग्र थतां थतां, जे एक समयनी वर्तमान अवस्था वर्ते छे तेने ज्ञेय करवा
केवळज्ञान त्रिकाळी द्रव्यगुण सहित एकेक समयनी अवस्थाने पण जाणे छे.
एकेक समयना आनंदने ज्ञान पकडी शकतुं नथी. समय–समयनुं वेदन पकडवा जतां, ते समय समयनी अवस्था
जेमांथी आवे छे एवा द्रव्य तरफ ज्ञान ढळी जाय छे. अने ते द्रव्यना आश्रये एवुं ज्ञान प्रगटे छे के एकेक
समयमां द्रव्य गुण–पर्याय बधाने जाणे. ते ज्ञान त्रण काळना आनंदने एक समयमां जाणी ल्ये छे, पण एक
समयमां त्रणकाळनो आनंद अनुभवातो नथी. पोताना आनंदनी बे समयनी अवस्थाने पण आत्मा भेगी
करी शकतो नथी, तो पछी आत्मा परने ल्ये के मूके–ए वात तो क्यां रही?