मिथ्याज्ञान छे. जेने पोताना स्वरूपनुं ज्ञान नथी ते
केम के तेणे पुण्य–पापमां ज पोताना आत्मानी एकता
मानी छे, पण ज्ञानस्वभाव साथे एकता मानी नथी;
तेथी ते जीव विकारथी छूटतो नथी पण विकारमां
एकत्वपणुं मानीने बंधातो ज जाय छे, तेनो संसार
नाश थतो नथी. जेणे पोताना ज्ञानने आत्मामां वाळ्युं
नथी अने पुण्य–पापथी जुदुं जाण्युं नथी ते जीव पुण्यथी
पण बंधातो ज जाय छे, पण छूटो पडतो नथी. अने जे
जीवे पोताना ज्ञानने पुण्य–पापथी जुदुं जाणीने
बंधातो नथी पण स्वभावना आश्रये बंधनथी छूटतो
ज जाय छे. त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव जेवो छे तेवो जाणीने
तेनी रुचि–प्रतीति करी ते जीव सम्यग्द्रष्टि थयो.