Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: १८८ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७५ :


ज्ञान पोताना स्वभावथी थाय छे, शब्दो सांभळवाना कारणे थतुं नथी. घडियाळमां आठ टकोरा पड्या
माटे ‘आठ वाग्या’ एवुं ज्ञान थयुं एम अज्ञानी माने छे. खरेखर ज्ञाननी तेवी लायकातथी ज ते जणायुं छे,
टकोराने लीधे नहि. जड शब्दो जडना कारणे परिणमे छे, ज्ञान ज्ञानना कारणे परिणमे छे. ज्ञान अने ज्ञेयनुं
परिणमन एक ज समये वर्ती रह्युं छे, पण बंने स्वतंत्र छे.
घडियाळमां ९मां प मिनिट ओछी होय त्यारे ज्ञान पण तेम ज जाणे, अने कोई पूछे के केटला वाग्या?
तो वाणीमां पण एम ज आवे के ‘नवमां पांच मिनिट ओछी’. तथा ते पूछनार जीवने ज्ञान पण तेवुं ज थाय
छे. आम बधुं मेळवाळुं होवा छतां दरेके दरेक द्रव्य स्वतंत्रपणे पोताना स्वकाळमां ज, परनी अपेक्षा वगर
परिणमी रह्युं छे.
घडियाळमां नवमां पांच ओछी होय त्यारे ज्ञान तेवुं ज जाणे पण ‘बार वाग्या छे’ एम न जाणे छतां
घडियाळना कारणे ज्ञान थयुं नथी. ज्ञानने कारणे ‘नवमां पांच ओछी’ एवी वाणी थई नथी; अने ते वाणीना
कारणे बीजा जीवने तेनुं ज्ञान थयुं नथी.
घडियाळमां ८ ने प मिनिट थई होय त्यारे ज्ञान तेम ज जाणे पण बार वाग्या छे एम न जाणे त्यां
घडियाळने लीधे ज्ञान थतुं नथी. घडियाळमां एटला वाग्या हता माटे एटलुं ज्ञान थयुं–एम नथी. तेमज ज्ञाने
जेवुं जाण्यु तेवी ज भाषा आवे, अने सामो जीव पण तेवु ज समजी जाय. आवो मेळ होवा छतां ज्ञाने जाण्युं
माटे भाषा थई नथी अने भाषाने कारणे सामा जीवने तेनुं ज्ञान थयुं नथी. ज्ञाननी अवस्था स्वावलंबी
चैतन्यना आश्रये ज कार्य करे छे–एम समजीने, पोताना ज्ञानस्वभाव तरफ वळीने त्रिकाळी स्वभावनी श्रद्धा
प्रगट करवी ते सम्यक् श्रद्धा छे. पण घडियाळ वगेरे ज्ञेयोने कारणे के शब्दोने कारणे ज्ञान थयुं–एम माने ते जीवे
आत्मामां ज्ञान ने शांति मान्या नथी एटले ते जीव पोताना स्वभाव तरफ वळतो नथी ने तेनुं मिथ्यात्व टळतुं
नथी. प्रशंसाना शब्दो जगतमां परिणमे तेनाथी आत्माने सुख के ज्ञान नथी, छतां तेनाथी ज्ञान के सुख माने
तो ते जीवनुं ज्ञान परमां लीन थयेलुं छे, ते ज्ञान अचेतन छे–अधर्म छे. शब्दोथी अने ते तरफना क्षणिक
ज्ञानथी जुदो पोतानो परिपूर्ण ज्ञानस्वभाव छे–एवो अभिप्राय थतां. शब्दोने के अपूर्णदशाने न स्वीकारतां
वर्तमान अवस्था पूर्ण स्वभाव तरफ वळे छे. द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ पूरा छे ज, ने तेना तरफ वळती अवस्था
पण परिपूर्णने ज स्वीकारे छे, तेथी ते अवस्था पण पूर्णना आश्रये पूरी ज थाय छे.
वाणी तेना अचेतनपणाथी भरेली छे ने हुं मारा चेतनपणाथी भरपूर छुं. मारा ज्ञानने वाणीनी जरूर
नथी अने वाणीने मारा ज्ञाननी जरूर नथी. –आम जाणीने जीव वाणीनो तेमज वाणी तरफना रागादिनो
आशरो छोडीने चेतनस्वभावनो आशरो ले छे. चेतनस्वभावी आत्मद्रव्यना लक्षे समये समये स्वभावनी
शुद्धता वधती जाय छे. एनुं नाम सर्वविशुद्धज्ञान छे.
[स. गा. ३९० थी ४०४ उपरना व्याख्यानोमांथी]
धर्ममां कोनुं ग्रहण ने कोनो त्याग?
प्रश्न–भेदविज्ञानथी ज धर्म थाय छे एम कह्युं, तो तेमां कांई छोडवानी वात तो न
आवी?
उत्तर–आत्माए परने पोतानुं मान्युं छे–ते ऊंधी मान्यताने पकडी छे, ते छोडवानी
आमां वात छे. कोई परवस्तुने तो आत्माए कदी पकडी नथी के तेने छोडे. आत्मामां कांई हाथ–
पग के दांत नथी के जेनाथी ते पर वस्तुने पकडे के छोडे. आत्माए पोताना स्वभावने भूलीने
‘विकार ते हुं’ एम विकारनी पक्कड पोतानी अवस्थामां करी छे, जेणे पोताना परिपूर्ण
ज्ञानानंद स्वरूपनी पक्कड–श्रद्धा–करीने ते विकारनी पक्कड छोडी तेणे छोडवायोग्य बधुं छोड्युं छे.
स्वभावनुं ग्रहण ने विकारनो त्याग एवा ग्रहण–त्याग ते ज धर्म छे. ए सिवाय पर वस्तुने
आत्माए पकडी नथी, पर वस्तु आत्मामां कदी प्रवेशती नथी, तो आत्मा तेने छोडे क्यांथी? हुं
परने छोडुं–एम जे माने ते जीव परनो अहंकार करनारो मिथ्याद्रष्टि छे.
“भेदविज्ञानसार”