Atmadharma magazine - Ank 071
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७५ : आत्मधर्म : १८९ :
(१) स्वमां एकतानो अभिप्राय ते धर्म, परमां एकतानो अभिप्राय ते अधर्म.
ज्ञानने स्वमां वाळीने एम प्रतीत करी के ज्ञानस्वरूप ते ज हुं छुं, ने पुण्य–पाप तथा परवस्तुओ हुं
नथी, ते ज अनेकांत छे. जे पुण्य–पाप छे ते ज हुं छुं, तेनाथी जुदुं कांई मारुं स्वरूप नथी एम मानवुं ते एकांत
छे, मिथ्यात्व छे, ते ज पुण्य–पापनी उत्पत्तिनुं मूळ छे. अने ज्ञानस्वरूप हुं छुं, पुण्य–पाप हुं नथी–एवी प्रतीति
ते पुण्य–पापनो नाश करीने केवळज्ञान प्रगट करवानुं मूळ छे. बस, स्वमां एकतानो अभिप्राय ते धर्म छे ने
परमां एकतानो अभिप्राय ते अधर्म छे; जेने स्वमां एकतानो अभिप्राय छे तेने स्वना आश्रये धर्मनी ज
उत्पत्ति छे, ने जेने परमां एकतानो अभिप्राय छे तेने परना आश्रये अधर्मनी ज उत्पत्ति थाय छे. जेने पुण्य–
पापनो ज उत्पाद भासे छे तेने ते वखते तेनो व्यय भासतो नथी. पुण्यपाप वखते ते पुण्य–पापनो व्यय
करनारो स्वभाव छे, ते तेने भासतो नथी. पुण्य–पापथी जुदो, पुण्य पापनो व्यय करनारो स्वभाव जेने
भासतो नथी ते पुण्य–पापनो व्यय करी शकतो नथी, एटले तेने शुद्धता थती नथी. जेने पुण्य–पाप रहित
स्वभावनुं भान छे ते जीव पुण्य–पाप वखते य स्वभावनी एकतारूपे ज ऊपजे छे, तेथी ते वखते य तेने
ज्ञाननी शुद्धतानी उत्पत्ति ज वधे छे. पुण्य–पाप नी उत्पत्ति वधती नथी. आ ‘सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार’ छे
तेथी, स्वभावनी श्रद्धाथी पर्यायमां समये समये ज्ञाननी विशुद्धता थती जाय छे तेनुं आ वर्णन छे.
(२) ज्ञानीने ज्ञान वधे छे, अज्ञानीने विकार वधे छे.
हे भाई? जे क्षणे पुण्य–पाप छे ते क्षणे आत्मस्वभाव छे के नथी? जो छे तो ते वखते तने तारुं ज्ञान
आत्मस्वभाव तरफ वळेलु भासे छे, के पुण्य–पाप तरफ वळेलुं ज भासे छे? जेनुं ज्ञान आत्मस्वभावमां वळेलुं
छे तेने तो, पुण्य–पाप वखते य आत्म स्वभावमां एकता रूपे ज ज्ञान कार्य करे छे तेथी, ज्ञाननी शुद्धि वधती
जाय छे, अने जेनुं ज्ञान आत्मस्वभावनो आश्रय छोडीने पुण्य पापमां ज वळ्‌युं छे तेने मिथ्या–ज्ञान छे, तेने
ज्ञान हणातुं जाय छे ने पुण्य–पाप रूप विकार भावो वधता जाय छे.
एक ज काळमां त्रिकाळी स्वभाव अने क्षणिक पुण्य–पाप ए बंने छे. तेमां त्रिकाळी स्वभावनी हयाती
स्वीकारीने तेनो आश्रय करवो ते धर्मनुं मूळ छे. अने त्रिकाळी स्वभावनी हयाती न कबूलतां परनी अने
क्षणिक पुण्य–पापनी ज हयातीने कबूलवी ते मिथ्यात्व छे, ते पापनुं मूळ छे. ज्ञानीने त्रिकाळी स्वभावमां
वळेला परिणामथी समये समये निर्मळ स्वभाव ज भासे छे, ने विकारनी उत्पत्ति नथी भासती पण व्यय
भासे छे. अज्ञानीने विकारनी उत्पत्ति ज भासे छे, पण शुद्ध आत्मानी हयाती भासती नथी, एटले तेने
शुद्धतानी उत्पत्ति थती नथी. ज्ञानीने शुद्धात्मानी हयाती भासे छे ने तेमां पुण्य–पापनी हयाती भासती नथी
तेथी तेने खरेखर शुद्धात्मानी ज उत्पत्ति थाय छे ने पुण्य–पापनी उत्पत्ति थती नथी.
(३) स्वभावमां वळेलुं ज्ञान ते स्वसमय छे ने ते ज मोक्षमार्ग छे.
आ शास्त्रनी बीजी गाथामां स्वसमय अने परसमयनुं स्वरूप बताव्युं हतुं. अहीं पर समयने दूर करीने
स्वसमयने प्राप्त करवानी वात करी छे. पोतानी ज्ञानरूपी आंखने जे तरफ वाळे तेनी हयाती भासे छे, अने ते
तरफ परिणमन थाय छे. मिथ्यात्व ते ज पुण्य–पापनुं मूळ छे –एम कहीने मिथ्यात्वनो नाश करवानुं कह्युं.
मिथ्यात्व टाळतां पुण्य–पाप पण टळी ज जाय छे. मिथ्यात्वने पुण्य–पापनुं मूळ कह्युं तेमां ए पण आवी गयुं के
सम्यकत्व ते वीतरागी चारित्रनुं मूळ छे. स्वभावनी श्रद्धा करीने ज्ञान तेमां ठर्युं ते ज चारित्र छे. ज्ञान पोताना
आत्मस्वभावमां करे तेमां ज दर्शन ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग आवी जाय छे. स्वभावमां ढळेलुं ज्ञान पोते
मोक्षमार्ग छे. आत्मस्वभावना आश्रये जे ज्ञान परिणम्युं तेमां मोक्षमार्ग आवी गयो, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूपे परिणमेला आत्माने प्राप्त करवो ते स्वसमयनी प्राप्ति छे. स्वभावमां वळेली निर्मळदशाने अहीं
स्वसमयनी प्राप्ति कीधी छे, ते मोक्षमार्ग छे, ते ज धर्म छे. मोक्षमार्गरूपे आत्मा पोते ज परिणमी जाय छे.
आत्माना स्वभावनी ओळखाण करीने, आत्मामां ज प्रवृत्तिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने शुद्ध ज्ञानने देखवुं. ते
शुद्धज्ञान त्याग ग्रहणथी रहित छे, तेणे संपूर्ण