Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७५ : आत्मधर्म : २०५ :
लेखांक: १] वीर संवत २४७३ भादरवा सुद ४ गुरुवार [अंक ७१ थी चालु
[श्र परमत्म प्रकश ग. ९]
[८७] शिष्यनी पात्रता
जेने संसार दुःखदायक लाग्यो छे एवो शिष्य आत्मानो स्वभाव समजवा माटे प्रश्न करे छे; जेने संसार
दुःखदायक न लागे तेने धर्म समजाय नहि. स्वर्ग–नरक वगेरेना जे अवतार तेनुं कारण विकार छे, ते विकार
मारो एवी मान्यता ते संसारनुं मूळ छे; जेने संसार दुःखदायक ज नथी लागतो तेने आत्मस्वभाव समजवानी
धगश केम थाय?
[८] संसारथी भयभीत शिष्य दु:खनुं वर्णन करे छे.
अहीं शिष्यने पोतानी पर्यायमां संसारनी हयाती भासी छे; हुं विकारमां वस्यो छुं तेथी ज दुःख छे, जो
स्वभावमां वस्यो होउं तो आ दुःख मने न होय;–आम जेने दुःख भास्युं छे ते जीव संसारना दुःखनुं वर्णन करे छे.
(१) आ संसार दुःखरूप खारा जळथी भरेलो छे. चार गतिमां मोटा राजपदनो भव हो के देवपदनो
अवतार हो, पण ते दुःखरूप छे, तेनी मीठाश शिष्यने ऊडी गई छे. जेने स्वर्गादिना अवतारनी मीठाश छे तेने
आत्मस्वभाव रुच्यो नथी.
(२) आत्मानो अजर अमर स्वभाव छे, तेनाथी विरुद्ध आ संसारनां जन्म–मरण छे. जन्म–जरा–
मरण वगेरे जळचरोथी आ संसारसमुद्र भरेलो छे. आम जे जन्म मरणथी भयभीत थयो छे ने अंतरथी
पोकार करतो आव्यो छे, एवो शिष्य आत्मस्वभाव समजवाने पात्र छे.
(३) आत्माना अनाकुळस्वरूप सुखथी विपरीत आ संसार छे, ते अनेक प्रकारना आधि–व्याधि ने
उपाधिरूपी वडवानलथी सळगी रह्यो छे. मनमां अनेक प्रकारना भय तथा आर्त्त–रौद्र ध्यान ते आधि छे,
शरीरमां रोगादि ते व्याधि छे, अने स्त्री, पुत्रादिनी चिंता ते उपाधि छे. एवा आधि, व्याधि, उपाधिरूप
महाअग्निथी आ संसार सळगी रह्यो छे. तेमां सदाय दुःख छे.
प्रश्न:– साचुं सुख जोया पहेलांं देवगतिमां दुःख भासे?
उत्तर:– हा, अंतर स्वभावमां आववानी जेने रुचि थई होय तेने बहारमां दुःख लाग्या वगर रहे ज
नहि. श्रीमदे कह्युं छे के ‘एम नहि तो कंई दुःख रंग’ एटले संसारमां दुःख छे एवो तेने रंग लागे. हजारो स्त्री
खमा खमा करती होय ने मोटा राजपाट होय तेमां पण पात्र जीवने दुःख भासे छे. क्षणिक विकार अने तेना
फळनी रुचि–सुख बुद्धि टळ्‌या वगर स्वभावमां आवशे शी रीते? जेने आत्मस्वभावनी रुचि थई होय तेने,
साचुं सुख प्रगट्या पहेलांं ज दुःख अने तेना कारणरूप विकारभाव प्रत्ये वैराग्य आवी जाय छे.
(४) आत्मानो स्वभाव वीतराग निर्विकल्प अभेद समाधिरूप छे, आ संसार ते समाधिथी रहित छे,
अने अनेक प्रकारना संकल्प–विकल्पनी जाळरूपी कल्लोलोथी भरेलो छे. जेम माळामां एक पछी एक मणको
आव्या करे तेम आ संसारमां एक पछी एक संकल्प विकल्पनी जाळ आव्या ज करे छे. एवो आ संसार दुःखथी
शोभी रह्यो छे. जेम ‘सारुं झेर’ एटले झट मारी नांखे तेवुं झेर; आ संसारनी शोभा एटले के दुःख; संसार
दुःखोथी सळगी रह्यो छे, तेमां क्षण पण सुख नथी.
–एवी रीते संसारनुं स्वरूप जाणीने शिष्य (प्रभाकरभट्ट) कहे छे के हे स्वामी! एवा दुःखमय संसारमां
वसतां मारो अनंतकाळ वीती गयो. हंमेश मिष्टान्न जमनार पण विकारभावथी दुःखी छे, ने खावा न मळतुं होय
ते पण विकारभावथी दुःखी छे; पुण्य–पाप बंने दुःखरूप छे. चैतन्यपिंड आत्मस्वभावनुं वेदन ज सुखरूप छे.
[८९] दु:खथी भयभीत शिष्य धर्मनी दुर्लभता समजीने तेनी भावना करे छे.
आ संसारमां जीवे अनादिथी नित्यनिगोदमां ज अनंतकाळ काढ्यो छे. ते नित्यनिगोदमांथी नीकळीने
एकेन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छे. तेनाथी बेईन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छे, तेनाथी त्रण ईन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छे,
तेनाथी चौईन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छे. कीडी–मंकोडो थवुं पण अनंत–