एम शिष्य धगशथी पूछे छे. सुख अनुभव्या पहेलांं दुःखनो त्रास लागे छे ते शुभराग छे, ते पण स्वभावनी
अपेक्षाए तो विकार छे. परंतु स्वभाव समज्या पहेलांं तेनी अंतर खोज अने वैराग्य आववो जोईए.
पण संज्ञीपणुं पामवुं अत्यंत दुर्लभ छे. संज्ञीपणुं पाम्या वगर हित–अहितनो विचार ज थई शके नहि. अहीं
बहारनी वात नथी पण आत्मामां राग घटीने ज्ञाननो उघाड थाय ते दुर्लभ छे, अने ज्ञानना उघाड अनुसार
बहारमां अधिकरण होय छे. अहीं धर्मनी दुर्लभता वर्णववी छे; परंतु ए ईन्द्रियो के शरीरनी नीरोगता वगेरेथी
धर्म थाय छे–एम न समजवुं. आ संसारमां संज्ञी पंचेन्द्रिय थाय तो पण तेमां छ पर्याप्तिनी पूर्णता दुर्लभ छे
अने तेमां पण मनुष्यपणुं अत्यंत दुर्लभ छे. तेमां पण आर्यक्षेत्र, उत्तमकुळ अने पांच ईन्द्रियोथी पूर्ण शरीर ते
मळवुं दुर्लभ छे. संतमुनिओना दर्शन अने तेमनी वाणीनुं श्रवण करवानी शक्ति मळवी दुर्लभ छे. वळी लांबु
आयुष्य दुर्लभ छे. ए बधुं दुर्लभ छे एम जाणीने धर्मनुं महात्म्य करे छे. ए बधुं मळवा छतां जैनदर्शननो
संयोग मळवो दुर्लभ छे. जैनदर्शन वगर जीव धर्म पामी शके नहि.
श्रेष्ठ धर्मनु एटले के आत्माना सत्स्वभावनुं श्रवण दुर्लभ छे. ते श्रवण पछी ग्रहण अने धारण करवुं दुर्लभ छे.
धर्म सांभळी जाय पण अंतरमां कांई धारी न शके तो समजी शके नहि. जैनधर्मनुं श्रवण करीने तेनी धारणा
पण करी राखे पण तेनी व्यवहार श्रद्धा करवी दुर्लभ छे, त्यार पछी कंईक वैराग्य, अने विषय सुखोथी निवृत्ति
एटले के तेमां तीव्र गृद्धिनो त्याग करवो दुर्लभ छे. अने क्रोधादि कषायोनी मंदता थवी पण दुर्लभ छे. आ बधुं
उत्तरोत्तर दुर्लभ छे, परंतु हजी अहीं सुधी धर्म नथी, अहीं सुधी तो शुभभाव छे. आटले सुधी आव्यो होय ते
जीव तो धर्म समजवानी पात्रता वाळो छे. हवे धर्मनी वात करे छे.
महान दुर्लभ छे. आमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र समजवा.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी प्राप्ति थती नथी.
साथे चालु रहे अने केवळज्ञान थतां सुधी तेमां वच्चे विघ्न न आवे, एवा अप्रतिहतभावे बोधि टकी रहे तेनुं
नाम समाधि छे, ते अत्यंत दुर्लभ छे. ए रीते निगोदथी शरु करीने उत्तरोत्तर दुर्लभता बतावतां केवळज्ञान
सुधीनी वात करी; वर्तमानमां आराधकभाव प्रगट करवो ते बोधि छे, अने भविष्यमां केवळज्ञान थतां सुधी ते
अखंडपणे टकी रहे ए समाधि छे.
सुखनी मने किंचित् प्राप्ति थई नथी, हुं दुःख ज पाम्यो छुं. अहीं पात्र शिष्यने एटलुं ख्यालमां आवी गयुं छे के
हुं अनादिथी छुं अने मारी पर्यायमां अनादिथी दुःख ज छे. हुं मारो स्वभाव समज्यो नथी तेथी ज दुःख छे. ते
दुःख टाळीने परमानंदमय सुख प्रगट करवानो उपाय बोधि अने समाधि छे एटले के मारा परमानंद–
स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र रूप रत्नत्रयनी अखंडपणे आराधना ते ज मारा परमानंद सुखनो उपाय छे.