Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: २०६ : आत्मधर्म : आसो : २४७५ :
काळे दुर्लभ छे. प्रभो! आवा संसारमांथी मारो आत्मा केम नीकळे! कई रीते वीतराग स्वरूपनी प्राप्ति थाय! –
एम शिष्य धगशथी पूछे छे. सुख अनुभव्या पहेलांं दुःखनो त्रास लागे छे ते शुभराग छे, ते पण स्वभावनी
अपेक्षाए तो विकार छे. परंतु स्वभाव समज्या पहेलांं तेनी अंतर खोज अने वैराग्य आववो जोईए.
मारा आत्मामां अवतार न होय एवुं अवतार वगरनुं स्वरूप मारे जोईए छीए आवी धगशथी शिष्य
कहे छे के प्रभो, आ संसारमां चार ईन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छे, अने पंचेन्द्रिय पामवुं अत्यंत दुर्लभ छे, तेनाथी
पण संज्ञीपणुं पामवुं अत्यंत दुर्लभ छे. संज्ञीपणुं पाम्या वगर हित–अहितनो विचार ज थई शके नहि. अहीं
बहारनी वात नथी पण आत्मामां राग घटीने ज्ञाननो उघाड थाय ते दुर्लभ छे, अने ज्ञानना उघाड अनुसार
बहारमां अधिकरण होय छे. अहीं धर्मनी दुर्लभता वर्णववी छे; परंतु ए ईन्द्रियो के शरीरनी नीरोगता वगेरेथी
धर्म थाय छे–एम न समजवुं. आ संसारमां संज्ञी पंचेन्द्रिय थाय तो पण तेमां छ पर्याप्तिनी पूर्णता दुर्लभ छे
अने तेमां पण मनुष्यपणुं अत्यंत दुर्लभ छे. तेमां पण आर्यक्षेत्र, उत्तमकुळ अने पांच ईन्द्रियोथी पूर्ण शरीर ते
मळवुं दुर्लभ छे. संतमुनिओना दर्शन अने तेमनी वाणीनुं श्रवण करवानी शक्ति मळवी दुर्लभ छे. वळी लांबु
आयुष्य दुर्लभ छे. ए बधुं दुर्लभ छे एम जाणीने धर्मनुं महात्म्य करे छे. ए बधुं मळवा छतां जैनदर्शननो
संयोग मळवो दुर्लभ छे. जैनदर्शन वगर जीव धर्म पामी शके नहि.
जैनधर्मनी प्राप्ति ते बधाथी पण दुर्लभ छे; ए बधुं मळ्‌या पछी पण श्रेष्ठ बुद्धि दुर्लभ छे.
आत्मकल्याणनो विचार करवानी बुद्धि ते श्रेष्ठ बुद्धि छे. ते बुद्धि होय तो श्रेष्ठ धर्मनुं श्रवण पामवुं दुर्लभ छे.
श्रेष्ठ धर्मनु एटले के आत्माना सत्स्वभावनुं श्रवण दुर्लभ छे. ते श्रवण पछी ग्रहण अने धारण करवुं दुर्लभ छे.
धर्म सांभळी जाय पण अंतरमां कांई धारी न शके तो समजी शके नहि. जैनधर्मनुं श्रवण करीने तेनी धारणा
पण करी राखे पण तेनी व्यवहार श्रद्धा करवी दुर्लभ छे, त्यार पछी कंईक वैराग्य, अने विषय सुखोथी निवृत्ति
एटले के तेमां तीव्र गृद्धिनो त्याग करवो दुर्लभ छे. अने क्रोधादि कषायोनी मंदता थवी पण दुर्लभ छे. आ बधुं
उत्तरोत्तर दुर्लभ छे, परंतु हजी अहीं सुधी धर्म नथी, अहीं सुधी तो शुभभाव छे. आटले सुधी आव्यो होय ते
जीव तो धर्म समजवानी पात्रता वाळो छे. हवे धर्मनी वात करे छे.
–अने ते बधायमां उत्कृष्ट शुद्धात्म भावना रूप वीतराग निर्विकल्प समाधि थवी बहु ज दुर्लभ छे.
पुण्य–पाप रहित, निरपेक्ष शुद्धात्म स्वभावनी भावना करवी, एकाकार स्वभावनी श्रद्धा अने ज्ञान–करवुं ते
महान दुर्लभ छे. आमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र समजवा.
आत्मस्वभावनी भावनारूप समाधि ते दुर्लभ छे, केमके मिथ्यात्व–विषय कषाय वगेरे विभाव
परिणामो तेना शत्रु छे. कर्मने शत्रु कह्या नथी पण पोताना ऊंधा परिणाम ज शत्रु छे. तेने लीधे जीवने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी प्राप्ति थती नथी.
ए समयग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी प्राप्ति ते बोधि छे. आ जीवने पूर्वे कदी तेनी प्राप्ति थई नथी; एवा
सम्यग्दर्शनादि बोधिनी निर्विघ्नपणे प्राप्ति ते समाधि छे. निर्विघ्नपणे एटले शुं? मरतां पण ते बोधि अखंडपणे
साथे चालु रहे अने केवळज्ञान थतां सुधी तेमां वच्चे विघ्न न आवे, एवा अप्रतिहतभावे बोधि टकी रहे तेनुं
नाम समाधि छे, ते अत्यंत दुर्लभ छे. ए रीते निगोदथी शरु करीने उत्तरोत्तर दुर्लभता बतावतां केवळज्ञान
सुधीनी वात करी; वर्तमानमां आराधकभाव प्रगट करवो ते बोधि छे, अने भविष्यमां केवळज्ञान थतां सुधी ते
अखंडपणे टकी रहे ए समाधि छे.
हवे प्रभाकरभट्ट शिष्य श्रीगुरुने कहे छे के ‘किमपि सुख न प्राप्तं मया’ –हुं आ संसारमां जरा पण सुख
पाम्यो नथी. बोधि अने समाधिनो मारामां अभाव छे तेथी बोधि अने समाधिवडे प्राप्त एवा परमानंदमय
सुखनी मने किंचित् प्राप्ति थई नथी, हुं दुःख ज पाम्यो छुं. अहीं पात्र शिष्यने एटलुं ख्यालमां आवी गयुं छे के
हुं अनादिथी छुं अने मारी पर्यायमां अनादिथी दुःख ज छे. हुं मारो स्वभाव समज्यो नथी तेथी ज दुःख छे. ते
दुःख टाळीने परमानंदमय सुख प्रगट करवानो उपाय बोधि अने समाधि छे एटले के मारा परमानंद–
स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र रूप रत्नत्रयनी अखंडपणे आराधना ते ज मारा परमानंद सुखनो उपाय छे.