Atmadharma magazine - Ank 072
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७५ : आत्मधर्म : २०७ :
[९०] जे प्रमाद करे छे ते संसारमां ज रखडे छे
आ संसारमां भमतां अनंत काळे दुर्लभ एवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं छे, अने तेमां पण अत्यंत दुर्लभ एवुं
जैनशासन मळ्‌युं छे; माटे प्रमाद करवो उचित नथी. दुर्लभ जैनशास्त्रना ज्ञानने पामीने पण जे प्रमादी थाय अने
‘हवे शास्त्रनुं ज्ञान थई थयुं छे माटे वांधो नथी’ एम मानीने अंतरमां स्वभावनो पुरुषार्थ न करे, स्वभावना
अंतर–वलणपूर्वक ज्ञान ध्याननी सावधानीनो पुरुषार्थ न करे अने परिणाममां स्वच्छंदी–प्रमादी थाय तेवा जीवो
बिचारा चार गतिमां भटके छे. शुद्ध चिद्रूप स्वभावने ज्ञान–ध्यानमां पकडवानो पुरुषार्थ तो करता नथी अने
‘श्रद्धा साची छे, पण चारित्रनो दोष छे’ एम कहीने प्रमादी थाय छे ते संसारमां भटके छे. जैनशासननुं ज्ञान
पामीने वारंवार जागृतिथी स्वभावनी सावधानीनो प्रयत्न करवो जोईए. सारांश ए छे के–जीवने सम्यग्दर्शनादि
नहि होवाथी ते संसारमां ज भटकी रह्यो छे ने दुःख ज भोगवी रह्यो छे, तेने किंचित् सुख मळ्‌युं नथी. माटे
परमानंदमय सुखनी प्राप्तिनो उपाय बोधि अने समाधि छे तेनो प्रयत्न करवो योग्य छे.
।। ।।
–आम जाणीने संसार दुःखथी छूटवा माटे ने परमानंद सुखनी प्राप्ति माटे आत्मस्वभाव समजवानी
धगशथी शिष्य श्रीगुरुने विनंति करे छे. शुं विनंति करे छे ते हवेनी गाथामां कहेशे.
मुनिवरोनो सहज वैराग्य
पोताना शुद्धात्माने ज उपादेय जाणीने तेमां ज लीन थनारा मुनिवरो केवा होय तेनुं वर्णन करे छे. ते
मुनि, सहज वैराग्यरूपी महेलनुं जे शिखर तेना शिखामणि छे. स्वभावनी भावना थतां परभावो प्रत्ये
स्वाभाविक वैराग्य होय छे. स्वभावना भान वगर बहारमां त्याग करी दीधो होय–ए कांई वैराग्य नथी.
स्वभावना भान वगर कषायनी मंदता करीने त्यागी थाय तोपण ते सहज वैराग्य नथी अने तेनो त्याग ते
साचो त्याग नथी. जेने शुद्धात्मानुं ग्रहण नथी तेने परभावोनो त्याग होतो नथी. पर भावोने ज जे उपादेय
माने छे तेने वैराग्य केवो?
सहज ज्ञान ते ज मारुं स्वरूप छे, मारुं स्वरूप जड रजकणोमां के रागमां नथी. पंचमहाव्रत पाळुं–एवो
विकल्प पण राग छे–बंधन छे, ते मारुं स्वरूप नथी. –आम पोताना ज्ञानस्वभावना भानमां ज्ञानीने सहज
वैराग्य होय छे. चोथा गुणस्थानथी ज सहज वैराग्य होय छे. सम्यग्दर्शन ते सहज वैराग्यरूपी महेलनो पायो
छे अने मुनि तो, ते सहज वैराग्यरूपी महेलनी टोच उपरना मणि समान छे. तेमनी परिणति पोताना सहज
स्वभावमां घणी ढळी गई छे. स्वभावथी ज स्वभावमां आवीने जेमनी परिणति परथी उदास थई गई छे
एवा वैराग्यना शिरोमणि मुनिवरोने एक अंतरतत्त्व ज उपादेय छे.
कोईए एक बावाजीने एकांतमां पूछयुं–बावाजी! केवी माळा फेरवो छो? बावाजी कहे–जेवो माणसनो
भरावो होय तेवी. एटले के जो वधारे माणसो होय तो बहु एकाग्रतानो दंभ करे अने ओछा माणसो होय तो
माळाने एक बाजु मूकी दे. आ लोकोने देखाडवा माटेनो दंभ छे; ए तो पापभाव छे. जे लोकोने देखाडवा
माटेनो दंभ न करे पण पोताना परिणाममां ज कषायनी मंदता करीने शुभभावथी त्यागी थयो होय, ने तेनाथी
धर्म मानतो होय एवा जीवने पण साचो वैराग्य नथी. जे जीवने अंतरमां एक शुद्धात्मा सिवाय बीजा शेमांय
उपादेय बुद्धि नथी तेने ज साचो वैराग्य होय छे. एवा सहज वैराग्यरूपी महेलनी टोच उपरना मणि समान
मुनिवरोने शुद्धात्मा ज उपादेय छे. शुद्धात्माने उपादेयपणे जाणवो ते ज धर्म छे.
शुद्ध आत्मा ज जेमने उपादेय छे एवा योगीश्वरो परद्रव्योथी परांग्मुख होय छे. आ जीवने पोताना
अंतरस्वभाव सिवाय कोई बीजानुं शरण नथी, कोई पर साथे संबंध नथी. देव–गुरु–शास्त्र पण आ जीवने
शरणभूत नथी, पोते अंतरतत्त्व छे ने बधाय परद्रव्योथी उदासीन छे. मुमुक्षु जीवोने साचा देव–गुरुना गुणोनी
अधिकता जोईने तेमना प्रत्ये प्रमोद ने भक्तिभाव आवे तो खरो. नीचली दशामां जो गुणोनी अधिकता देखीने
ते प्रत्ये प्रमोदभाव ने भक्ति न जागे तो ते जीव शुष्क छे, तेने खरेखर गुणनी रुचि नथी. परंतु देव–गुरु
प्रत्येनो जे प्रमोद भाव थाय ते पण राग छे, ते रागने जो शरणभूत माने तो अज्ञान छे. जो परने शरणभूत
मानशे तो परथी उदासीन थईने पोताना स्वरूपनो आदर क्यांथी करशे? अने देव–गुरु प्रत्येना शुभरागने जो
पोतानुं कर्तव्य मानशे के तेनाथी कल्याण मानशे तो ते रागनो
[अनुसंधान पान २१६]