क्रियाओ करी, त्यारे तेमने मुक्ति प्राप्त थई ने?
क्रिया देखाय छे. शुं भगवान दुःख सहन करी करीने मुक्ति पाम्या? के आत्माना आनंदनो अनुभव करतां
ते सुखरूप होय के दुःखरूप होय? भगवाने दुःखरूप लागे तेवा उपवास नहोता
कर्या, पण अतंरना चैतन्य समुद्रमां डूबकी मारीने आत्मिक आनंदरसना
स्वादना अनुभवमां एवा लीन थता के आहारनो विकल्प ऊठतो नहि अने
तेथी बहारमां आहारादि पण सहेजे न हता. एवी अंतर क्रिया अने एवा
उपवास भगवाने कर्या हता. अज्ञानीओए अंतरमां आत्मानी क्रियाने न
ओळखी अने बहारमां आहारनो संयोग न थयो ते वातने वळगी पड्या, ने
तेमां ज धर्म मानी लीधो. आहार तो जड छे, पर वस्तु छे. पर वस्तुनुं ग्रहण के
थशे क्यांथी? शुद्ध चैतन्यतत्त्वने जाणीने–मानीने तेना ज अनुभवमां एकाग्र थवुं ते धर्मी जीवोनी क्रिया छे; ए
क्रिया करवाथी मुक्ति थाय छे. ए सिवाय शरीरनी कोई क्रियाथी के विकारीभावरूप क्रियाथी धर्म के मुक्ति थती
नथी.
छे तेने न माने अने न अनुभवे तो जीवनुं अज्ञान टळे नहि. हे जीव! त्रिकाळी शुद्ध स्वभावने समज्या वगर
तुं श्रद्धाने क्यां एकाग्र करीश? अने ज्ञानने क्यां थंभावीश? निर्विकल्प शुद्धस्वभाव साथे एकता अने विकारथी
जुदापणुं–आवी श्रद्धा–ज्ञान अने अनुभव कर्या पछी विकार थाय तेने जीव पोताना स्वरूप तरीके न अनुभवे;
एटले शुभाशुभ विकार वखतेय शुद्धस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञानरूप धर्म जळवाई रहे छे. अने साधक जीव सदाय ए
ज रीते स्वभावमां एकतारूपे ने विकारथी जुदापणे परिणमता थका शुद्धतानी पूर्णता करीने केवळज्ञान प्रगट
करे छे.
ज्ञानीओ पासेथी सांभळीने एकवार पण पोतानी प्रभुतानो महिमा ओळखे तो
पोते प्रभु थया वगर रहे ज नहि. जीव ज्यां गयो त्यां तेणे पुण्यनी अने
पराश्रयनी वात सांभळी छे ने तेमां धर्म मान्यो छे. पण ते पुण्य तो क्षणिक विकार
छे, ते सिवायनो त्रिकाळी चिदानंद आत्मा छे, तेने लक्षमां लेवो ते सम्यग्दर्शन छे.
जुओ तो खरा! पोते ज परमात्मा छे, तेने तो मानतो नथी अने बहारमां भटके
छे. आचार्य भगवान फरमावे छे के मुमुक्षुओने पोताना परमात्माने छोडीने बीजी
कोई वस्तु उपादेय नथी. अत्यारे ज हुं कृतकृत्य परिपूर्ण छुं, मोक्षदशा नथी ने प्रगट
करुं –एवा बे प्रकारो मारा एकरूप स्वरूपमां पडता नथी;–आवी अंर्तद्रष्टि वगर
जीवनुं कल्याण थाय नहि.