Atmadharma magazine - Ank 073
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म: कारतक : २००६
महावीरनी क्रिया अने महावीरना उपवास
प्रश्न :– मात्र ‘आत्मा शुद्ध छे’ एम समजी जवाथी शुं मोक्ष थई जतो हशे? कांईक शरीरनी क्रिया करवी
जोईए ने? महावीर प्रभुए पण मुनिदशामां बार–बार वरस सुधी कष्ट सहन कर्यां अने उपवास वगेरे
क्रियाओ करी, त्यारे तेमने मुक्ति प्राप्त थई ने?
उत्तर :– भाई, तारी वात अक्षरे अक्षर खोटी छे. आत्मा कोने कहेवो तेनुं पण तने भान नथी तो पछी
भगवानना आत्माए शुं कर्युं तेनी तने क्यांथी खबर पडे? तने आत्मानी क्रिया देखाती नथी, मात्र जडनी
क्रिया देखाय छे. शुं भगवान दुःख सहन करी करीने मुक्ति पाम्या? के आत्माना आनंदनो अनुभव करतां
करतां मुक्ति पाम्या? उपवास आत्मामां थतो हशे के शरीरमां? उपवास करवो
ते सुखरूप होय के दुःखरूप होय? भगवाने दुःखरूप लागे तेवा उपवास नहोता
कर्या, पण अतंरना चैतन्य समुद्रमां डूबकी मारीने आत्मिक आनंदरसना
स्वादना अनुभवमां एवा लीन थता के आहारनो विकल्प ऊठतो नहि अने
तेथी बहारमां आहारादि पण सहेजे न हता. एवी अंतर क्रिया अने एवा
उपवास भगवाने कर्या हता. अज्ञानीओए अंतरमां आत्मानी क्रियाने न
ओळखी अने बहारमां आहारनो संयोग न थयो ते वातने वळगी पड्या, ने
तेमां ज धर्म मानी लीधो. आहार तो जड छे, पर वस्तु छे. पर वस्तुनुं ग्रहण के
त्याग आत्मा करी शकतो नथी. अंतरमां निरुपाधि आत्मस्वभाव शुं छे एना भान विना चैतन्यमां लीनता
थशे क्यांथी? शुद्ध चैतन्यतत्त्वने जाणीने–मानीने तेना ज अनुभवमां एकाग्र थवुं ते धर्मी जीवोनी क्रिया छे; ए
क्रिया करवाथी मुक्ति थाय छे. ए सिवाय शरीरनी कोई क्रियाथी के विकारीभावरूप क्रियाथी धर्म के मुक्ति थती
नथी.
बधा आमनो पवित्र निरूपाधिक स्वभाव छे; स्वभावमां विकार त्रणकाळमां नथी. वर्तमान अवस्थामां
जे विकार छे तेने ज पोतानुं स्वरूप मानीने तेना अनुभवमां अटकी जाय ने ते रहित जे त्रिकाळी शुद्धस्वभाव
छे तेने न माने अने न अनुभवे तो जीवनुं अज्ञान टळे नहि. हे जीव! त्रिकाळी शुद्ध स्वभावने समज्या वगर
तुं श्रद्धाने क्यां एकाग्र करीश? अने ज्ञानने क्यां थंभावीश? निर्विकल्प शुद्धस्वभाव साथे एकता अने विकारथी
जुदापणुं–आवी श्रद्धा–ज्ञान अने अनुभव कर्या पछी विकार थाय तेने जीव पोताना स्वरूप तरीके न अनुभवे;
एटले शुभाशुभ विकार वखतेय शुद्धस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञानरूप धर्म जळवाई रहे छे. अने साधक जीव सदाय ए
ज रीते स्वभावमां एकतारूपे ने विकारथी जुदापणे परिणमता थका शुद्धतानी पूर्णता करीने केवळज्ञान प्रगट
करे छे.
– नियमसार प्रवचनो : गा. ३९
प्रभुता
अहो! आत्मानो पोतानो स्वभाव ज प्रभु छे, महिमावाळो छे. जीवे
पोताना स्वभावनी प्रभुता कदी होंशथी सांभळी नथी अने स्वीकारी नथी. जो
ज्ञानीओ पासेथी सांभळीने एकवार पण पोतानी प्रभुतानो महिमा ओळखे तो
पोते प्रभु थया वगर रहे ज नहि. जीव ज्यां गयो त्यां तेणे पुण्यनी अने
पराश्रयनी वात सांभळी छे ने तेमां धर्म मान्यो छे. पण ते पुण्य तो क्षणिक विकार
छे, ते सिवायनो त्रिकाळी चिदानंद आत्मा छे, तेने लक्षमां लेवो ते सम्यग्दर्शन छे.
जुओ तो खरा! पोते ज परमात्मा छे, तेने तो मानतो नथी अने बहारमां भटके
छे. आचार्य भगवान फरमावे छे के मुमुक्षुओने पोताना परमात्माने छोडीने बीजी
कोई वस्तु उपादेय नथी. अत्यारे ज हुं कृतकृत्य परिपूर्ण छुं, मोक्षदशा नथी ने प्रगट
करुं –एवा बे प्रकारो मारा एकरूप स्वरूपमां पडता नथी;–आवी अंर्तद्रष्टि वगर
जीवनुं कल्याण थाय नहि.
– नियमसार प्रवचनो : गा. ३८