Atmadharma magazine - Ank 073
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : कारतक : २००६
सत्य वस्तस्वरूप

जे कदी न फरे एवुं साचुं आत्मस्वरूप शुं छे? ते ज कहेवाय छे. त्रणकाळ त्रणलोकमां सत्य वस्तुस्वरूपने
फेरवी शके एवो कोई प्राणी नथी. सत्यने कोई जीव ऊंधी रीते माने तो तेथी ते जीवने पोताना भावमां ऊंधाई
थाय, पण कांई त्रिकाळी सत् स्वभाव फरी जाय नहि. पोताना त्रिकाळ एकरूप सत् स्वभावने स्वीकारवो ते
मोक्षनो पंथ छे. क्षणिक भावोरूपे पोताने न स्वीकारतां, पूरा गुणस्वभावे स्वीकारीने, ते पूरो स्वभाव ज ग्रहण
करवा योग्य छे. अत्यंत निकटभव्य जीवोए एटले के अल्पकाळमां सिद्ध थनारा जीवोए, पोताना आत्माने
नमालो पराधीन–विकारी के अधूरो मानवो नहि पण पूर्ण परमात्म स्वरूप हुं छुं–एम श्रद्धा करीने तेनो ज
आदर करवो–तेमां ज लीन थवुं. पूर्णदशा प्रगट थया पहेलांं अवस्थामां रागादि विकार होय, तेना होवापणानी
ना नथी, परंतु ते रागना आदरथी धर्म थतो नथी. धर्मी जीवनी द्रष्टि ते राग उपर के अपूर्णता उपर होती
नथी. शुभराग करतां करतां तेनाथी परंपराए धर्म थशे, –एम जे माने छे ते जीव रागने उपादेय माने छे पण
रागरहित शुद्ध ज्ञानस्वभावने उपादेय मानतो नथी, तेथी ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. ज्ञानीओ पोताना सहज शुद्ध
आत्मतत्त्वनी द्रष्टिमां रागने स्वीकारता ज नथी; तेथी तेमने ते राग होय ते हेयबुद्धिथी छे. ‘मारे मारुं शुद्ध
स्वरूप ज उपादेय छे, शुभराग थाय ते मारुं कर्तव्य नथी’ एवी धर्मद्रष्टिने लीधे धर्मी जीवने शुद्ध स्वभाव तरफ
ज परिणमन वधतुं जाय छे अने रागादि अशुद्धता टळती जाय छे. शुद्ध आत्मानी श्रद्धा कोई पुण्य भाववडे थई
शकती नथी पण शुद्धभावथी ज थाय छे. पोताना शुद्ध स्वभावनो निश्चय करे तो शुद्धभाव प्रगटे ने मुक्ति थाय.
आत्मामां शुभराग करतां करतां धर्म थशे–एम माननार जीवने वीतरागस्वभावनो आदर नथी पण
रागनो आदर छे, ते वीतरागनो भक्त नथी, मिथ्याद्रष्टि छे. जेणे विकारने कर्तव्य मान्युं ते जीव पाखंडी–अधर्मी
छे. पुण्य करवाथी धर्ममां आगळ वधी शकातुं नथी पण पुण्यरहित शुद्ध आत्मस्वभाव छे तेनी पहेलांं श्रद्धा
करवाथी ज आगळ वधी शकाय छे. स्वभावनो आदर अने आश्रय करतां करतां ज वीतरागता ने केवळज्ञान
थाय छे. चिदानंद स्वभावनी श्रद्धा ज आगळ वधवानो मूळ उपाय छे. जे राग थाय ते वीतरागतानो मार्ग
नथी, वस्तुनो धर्म नथी. श्री तीर्थंकर भगवंतोए पोताना परम आत्मस्वभावने ओळखीने तेना ज आश्रयथी
पूर्ण मुक्तदशा प्रगट करी छे जे अनादि स्वभाव मार्ग छे ते मार्गने अनुभवीने पोते पूर्ण थया अने
दिव्यध्वनिद्वारा ते मार्ग जगतने देखाडयो. अनंतकाळमां गमे त्यारे एक आ ज मार्गथी मुक्ति पमाय छे.
‘आत्मानो जे यथार्थ स्वभाव छे ते न समजाय माटे पहेलेथी जे करीए छीए ते ज कर्या करो’ –एम
अज्ञानीओ माने छे, तेनो अर्थ ए थयो के अनादिथी जे अज्ञानभाव करतो आवे छे ते ज चालु राखवो छे ने
स्वभाव समजवो नथी; अनादिथी जे रीते संसारमां रखडयो छे ते ज रीते संसारमां रखडया करवुं छे. भाई रे!
अनादिथी जे भावो करी करीने तुं संसारमां रखडे छे तेनाथी तद्न जुदी जातनो धर्मनो मार्ग छे. माटे ते समज, तो
तारो उद्धार थाय. जे उपाय छे ते जाण्यां वगर सत्य मार्ग हाथ आवशे नहि.
[–नियमसार प्रवचनो : गा. ३८]
माताजीने संदेश
[भरत चक्रवर्तीना नानी उंमरना पुत्रने वैराग्य उत्पन्न थाय छे अने
दीक्षा लेवा माटे जाय छे त्यारे माता उपर संदेश मोकले छे.]
* * *
हे वीर जननी! पुत्र तारो जाय छे मोक्षधाममां, नहि मात बीजी
धारशे, धारो न शंका लेश त्यां. मारा वियोगे मात! तुजने चोधार आंसु
आवशे, पण वीर तारो पुत्र आ वीतरागता अपनावशे. मुमुक्षुताने
दाखवी धीर–वीर थईने ठरशुं, त्रिकाळज्ञानी तुरत थईने सिद्ध पदने
पामशुं. ए वात जाणी मात मारी! आनंद उरमां लावजे, दादा तणा
दरबारमां ‘“कार’ सूणवा आवजे.
–बाळकोना संवादमांथी, लाठी.