Atmadharma magazine - Ank 073
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक: २००६ आत्मधर्म : ५ :
बोटादमां पू: गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान माह वद ८ रविवार ता. २०–२–४९
पद्मनंदीपंचविंशती: सद्बोध चंद्रोदय अधिकार [गाथा ८ मी]

दरेक आत्मा सुखने शोधे छे. शरीरमांथी, स्त्रीमांथी, लक्ष्मीमांथी सुख शोधे छे, क्रोध करीने के बीजाने
दुःख दईने पण पोते सुखी थवा मागे छे, शरीर छोडीने एकलो रहीने पण सुखी थवा मागे छे. गमे त्यां सुख
होय त्यांथी ते लेवा मागे छे. अज्ञानी जीव सुख माटे अनादिथी बहारमां फांफा मारे छे, जाणे के पोतामां तो
सुख होय ज नहि! सुख गोततां गोततां छेवटे शरीर जतुं करी नांखे छे; तो हवे एवुं सुख क्यां छे? के जे शरीर
वगर पण थाय! बधुं मूकीने आत्मामां ज सुख छे–एवुं तेने भ्रांतिमां पण अव्यक्तपणे आवी जाय छे. शरीर
छोडीने पण जो आपदा टळीने सुखी थवातुं होय तो ते सुख लेवा मागे छे, तेनो अर्थ एम थयो के शरीर वगर
पण सुख होय छे; शरीरमां सुख नथी, तो पछी स्त्री, लक्ष्मी वगेरेमां सुख क्यांथी होय?
जीव शरीरादि बधुं जतुं करीने पण सुख लेवा मागे छे एटले क्यांक सुख तो छे–एवी एने श्रद्धा छे,
अने शरीरादि बधुं जतुं करीने पण सुख लेवा मागे छे, हवे शरीरादि बधुं जतुं करतां तो एकलो आत्मा रहे छे
एटले अज्ञानपणे पण ‘आत्मामां ज सुख छे’ एवी तेने अव्यक्तपणे गंध तो रहे छे.
कोई कहे के लाडवामां सुख छे. तो त्रण लाडवा करतां ३० लाडवामां दसगणुं सुख थाय. पण त्रण
लाडवा खाईने पछी कहे छे के बस, हवे नहि. जो लाडवामां सुख होय तो तेमां “हवे नहि” एम न थाय.
वळी जो पैसामां सुख होय तो एक हजारनी मूडीवाळा करतां एक लाखनी मूडीवाळो सो गणो सुखी होवो
जोईए, ने करोडोनी मूडीवाळो तेनां करतांय सो गणो सुखी होवो जोईए. पण एम तो देखातुं नथी. केमके
पैसामां सुख नथी.
चैतन्यनी सत्तामां ज सुख छे. जे परमांथी सुखने शोधे छे तेना पोतामां ज सुख छे. जो तेना पोतामां
सुख स्वभाव न होय तो ते बहारमां सुख न शोधे. पोतानी चैतन्यसत्तामां सुख छे, ने तेनुं साधन पण पोतामां
छे. सुखनुं साधन बहारमां नथी. चैतन्यसत्तामां आनंदस्वभाव भर्यो छे, तेने भूलीने अज्ञानी जीव पुण्य–पाप
विकारने पोतानुं स्वरूप माने छे. अने बहारमां सुखनुं साधन माने छे ते अधर्म छे, दुःख छे. शरीर–मन–वाणी के
पर पदार्थना साधनथी मने धर्म थाय ते मान्यता अधर्म छे. पराधीनतामां स्वप्नेय सुख नथी. ज्ञानस्वभावी
आत्मामां सुख छे, छतां सुख माटे जेणे परना अवलंबननी जरूर मानी तेने स्वना अवलंबननो एटले के
स्वाधीनतानो अभाव थाय छे, ने पराधीनता थाय छे. पराधीनता ए ज दुःख छे. दुःख छे ते सुख गुणनी
विपरीत अवस्था छे. जीवनी दशामां दुःख छे ते एम साबित करे छे के तेमां त्रिकाळ सुखगुण छे. लाकडामां क्रोध
नथी केमके तेमां क्षमागुण नथी. जीवने राग–द्वेषनी वृत्तिना कारणे जे दुःख छे ते त्रिकाळ सुखगुणनी विकृत
अवस्था छे. ते विकृति क्षणिक छे, तेटलो ज आत्मानो स्वभाव नथी. आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव अविकृत छे.
तेनुं जेने भान नथी ते जीव परावलंबी भाव करीने स्वावलंबी चैतन्यने भूले छे, ते अधर्म छे. आत्माना
स्वाधीन चैतन्यस्वभावमां सुख छे, तेने ओळखे तो धर्म थाय छे. धर्म कहो के सुख कहो. धर्म अत्यारे करे अने
सुख पछी थाय–एम नथी. पण धर्म रोकडीयो छे. जे धर्म करे तेने ते ज वखते सुखनो अनुभव थाय छे.
आत्मानो ज्ञान स्वभाव छे; ज्ञाननो स्वभाव बधाने जाणे एवो छे. पण जे ज्ञान आत्मा सिवाय बीजा
पदार्थना अवलंबनमां अटकीने जाणे ते ज्ञान पूरुं जाणतुं नथी. बीजाना अवलंबने तो चैतन्यनुं ज्ञान न खीले,
पण अहीं तो आचार्य भगवान कहे छे के मनना अवलंबने जे ज्ञान खीले ते ज्ञान पण चैतन्य स्वभावमां
प्रवेशतुं नथी. ज्ञान अरूपी छे, मन तो रूपी जड छे.