Atmadharma magazine - Ank 073
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : कारतक : २००६ :
गमे तेटलुं ज्ञान भेगुं थाय पण तेमां जराय तोल थतो नथी केमके ते अरूपी छे. वळी घणां वर्ष पहेलांंनी वात याद
करवामां वधारे काळ लागतो नथी. जेम कालनी वात याद करे, तेम पचास वर्ष पहेलांंनी वात पण क्षणमां याद करे छे,
केमके ज्ञाननो स्वभाव काळने खाई जवानो छे. एक समयमां त्रणकाळने जाणी लेवानो स्वभाव छे. आवुं पोतानुं
ज्ञान सामर्थ्य छे. वळी पूर्वे विकारभाव कर्या होय तेनुं वर्तमानमां ज्ञान करे छतां ज्ञान साथे पूर्वनो विकार थतो नथी,
विकार तो नवो करे तो थाय छे, ने न करे तो नथी थतो. माटे ज्ञाननो स्वभाव विकार रहित छे. आ शरीरना वियोगे
चैतन्यसत्तानो नाश थई जतो नथी, अने विकारी भावोनो नाश थतां पण चैतन्यसत्तानो नाश थतो नथी; माटे
आत्मानी चैतन्यसत्ता शरीरथी अने विकारथी जुदी छे. आत्मा अरूपी, ज्ञानस्वभावी ने निर्विकारी छे, एवा आत्मामां
ज स्वाधीन सुख छे–एनी ज्यां सुधी ओळखाण अने प्रतीत न करे त्यांसुधी जीव सुखना साचा रस्ते नथी.
जेम बाळक लाकडीने घोडो माने पण वींछी करडे त्यारे बेसवाना काममां न आवे, तेम अज्ञानीओ पैसा
वगेरेमां सुख माने छे, पण तेमां सुख नथी; कोई संयोगमांथी सुख भोगवी शकातुं नथी. अज्ञानीनुं चित्त
स्वभावने भूलीने बहारमां ज लाग्युं रहे छे पण अंतरमां वळतुं नथी. अज्ञानीनुं मन अनादिथी बहारमां केम
भमे छे? अंतरमां केम वळतुं नथी? तेना उत्तररूपे आचार्यदेव अलंकारथी कहे छे के जो मन अंतर स्वभावमां
वळे तो मननुं मृत्यु थई जाय छे. तेथी ‘मन’ने एम थाय छे के ‘जो हुं अंतर स्वरूपमां वळीश तो मारुं मृत्यु
थई जशे.’ माटे मृत्युना भयथी ते बहार ज भटके छे. आशय ए छे के हे जीव! पहेलांं तो अंतर स्वभावमां
वळीने श्रद्धा कर के मनना अवलंबने मने लाभ थतो नथी. एम श्रद्धा करीने मनने थोथुं बनावी दे. पहेलांं
अंतरमां वळीने ‘परावलंबनथी लाभ थाय’ एवी मान्यतानो नाश कर्यो पछी ज्ञानीने अस्थिरताथी मननुं
अवलंबन आवे तेने श्रद्धाना जोरे थोथुं बनावी दे छे. जेनाथी भय पामे तेनी पासे जाय नहि, तेम अंतर
स्वभावमां वळतां ‘मन’ने मृत्युनो भय छे तेथी ते बहार भटके छे पण अंतरमां वळतुं नथी. एटले अहीं
अलंकारथी आचार्यदेवे एम कह्युं के आत्मानो स्वभाव मनथी पार छे, मननुं अवलंबन पण आत्माने नथी.
आत्मानो स्वभाव भूलीने तेने परावलंबन मान्युं छे ते मान्यता ज संसार छे. आत्मानो संसार
बहारमां शरीर–स्त्री वगेरेमां नथी; जो शरीरादिमां आत्मानो संसार होय तो तो, मरतां तेने मूकीने चाल्यो
जाय छे तेथी, तेनो संसार ज छूटी जाय.
हे भाई! आ शरीर तारी चीज नथी. ते तो बळीने राख थई जशे. शींगडुं झालीने मोटा सांढने ऊभो
राखी दे एवी ताकात शरीरमां होय ने क्षय रोग थई जतां श्वास लेवानी पण शक्ति न रहे. ए तो शरीरनी
हालत छे; ते शरीर तारी चीज नथी अंतरमां तारी चैतन्यसत्ता छे तेने संभाळ. एक सेकंड पण चैतन्यसत्ताने
ओळखीने सम्यक्भान प्रगट करे तो क्रमे–क्रमे संसार टळीने मुक्ति थया विना रहे नहि. भाई, वातनी ना
पाडीने तुं क्यां जईश? क्यां तारा उतारा थशे? “हुं नथी” एम ना पाडवामां य ‘हा’ आवी जाय छे. केमके ‘हुं
नथी’ एम कोणे जाण्युं? ‘हुं नथी’ एवो नकार कोनी सत्तामां आव्यो? माटे ‘हुं नथी’ एम कहेवामां ज ‘हुं छुं’
एम सिद्ध थई जाय छे.
न्त्त् र्
अहो! आत्मतत्त्वनी साची वात सांभळवा मळवी दुर्लभ छे. जेम गोळनी ने
अनाज वगेरेनी दुकानो तो गाममां घणी होय अने तेना लेनारा पण घणा होय,
परंतु साचा हीरानी दुकान तो कोईक ज होय अने हीरा लेनारा पण थोडा ज होय.
तेम आ चैतन्यतत्त्वनी वात मोंघी छे. पुण्य वगेरेमां धर्म मानवानी वात तो जगतमां
सर्वत्र चाले छे अने ते वात माननारा घणा जीवो होय छे, पण शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी
वात जगतमां बधे होती नथी अने तेने समजनारा पण विरल जीवो होय छे जेने
पोताना आत्मानुं हित करवुं होय–कल्याण करवुं होय ने अनंत जन्म–मरणना
दुःखोथी छूटीने मुक्ति मेळववी होय तेने आवो आत्मस्वभाव समज्ये ज छूटको छे.
पोताना सहज शुद्ध आत्माने समजीने–श्रद्धीने तेमां ठरवुं ते ज मुक्तिनो उपाय छे.
जेओ आत्मतत्त्वने नथी समज्यां एवा अज्ञानी जीवोने समजाववा माटे
आचार्यदेवे प्रयत्न कर्यो छे; माटे मने न समजाय एम मानीने सत्नो प्रयत्न छोडी
देवो नहि.
– नियमसार गा. ३८ उपरना व्याख्यानमांथी