चार आना
आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! तुं आवा शुद्ध जीवतत्त्वनी श्रद्धा
कर. ‘हुं रागी छुं–हुं द्वेषी छुं, हुं विकारनो कर्ता छुं, हुं जडनी
क्रियानो कर्ता छुं’ एवी अशुद्धात्मानी श्रद्धा तो तें अनादिकाळथी
करी छे अने ए मिथ्याश्रद्धाने लीधे ज तुं संसारमां रखडी रह्यो
छे. माटे हवे, ए विकार हुं नहि पण ‘परम शुद्ध आत्मा ते ज हुं’
एवी शुद्धात्मानी श्रद्धा कर, तो तारा आत्मामां शुद्धभाव प्रगटे
अने तारुं अविनाशी कल्याण थाय.