प्रभाकरभट्टने संबोधीने ते वखते योगीन्द्रदेवे आ शास्त्र रच्युं छे, परंतु सर्व आत्मार्थी श्रोताओने ते लागु पडे छे.
आर्त्तध्यान छे, अने परमात्मा एटले रागादि रहित ज्ञानस्वभाव; ते ज्ञानस्वभावमां एकाग्रता ते ज धर्मध्यान
छे. आत्मानुं स्वरूप ज्ञान छे, ते ज्ञाननी मर्यादामां पुण्य–पाप नथी; एम ज्ञानस्वभावने ओळखीने तेमां ज
एकाग्रता करवा जेवी छे. साधकने पुण्य–पाप थाय खरा पण तेमां एकाग्रता करवा जेवी नथी.
आदरणीय छे तेम बताव्युं, अने ए परमात्मा जेवो ज पोतानो शुद्ध निरंजन ज्ञानमय स्वभाव त्रिकाळ छे तेनी
ओळखाण करावी.
हवे श्रीयोगीन्द्रदेव परमात्मानुं स्वरूप वर्णवीने शिष्यने कहे छे के एवा परमात्मानुं तुं ध्यान कर!
लक्खु आलक्खें धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि।। १६।।
निर्विकल्प नित्यानंद स्वभावमां स्थिर करीने ते परमात्मानुं चिंतवन कर.
सिद्धपणाने प्राप्त परमात्मस्वभाव ज ध्यान करवा योग्य छे, तुं तेनुं ध्यान कर! कई रीते ध्यान करवुं ते कहे छे.
विकल्पथी के रागथी परमात्मानो विचार करवो ते तो पुण्य छे. पण पोताना स्वभावने सिद्धपरमात्मा
जणाय? अने सिद्ध भगवाननुं ध्यान क्यारे कर्युं कहेवाय? जेम सिद्धने संपूर्ण ज्ञान छे ने जराय रागादि नथी,
तेम पोतानो स्वभाव रागादि रहित परिपूर्ण ज्ञान स्वरूप छे;–एम स्वाश्रये श्रद्धा करीने पोताने निर्मळतानो जे
अंश प्रगट्यो ते रागादि रहित शुद्ध छे, अने ते अंशना नमूनावडे सिद्ध भगवाननी पूर्ण शुद्धतानी ओळखाण
थाय छे. पण जेणे पोताना आत्मानी श्रद्धाद्वारा रागरहित अंशने अनुभव्यो नथी तेने सिद्ध परमात्मानी
प्रतीति थाय नहि. शुद्धतानो थोडोक नमूनो पोता पासे होय तो सिद्ध भगवाननी पूरी शुद्धतानुं मान करे.
पोतानो आत्मा रागादि रहित केवळज्ञानादिस्वरूप सिद्ध परमात्मा जेवां ज छे, एवा स्वभावने ओळखीने तेनुं
ज ध्यान करवुं. एवा शुद्धात्मनुं ध्यान करवुं ते ज साक्षात् उपादेय छे, ए सिवाय रागादि कोई उपादेय नथी.
परमात्मानुं ध्यान करवानुं कह्युं छे ते पोताथी भिन्न परमात्मानुं नहि, पण परमात्मानी जेम पोतानो
सिवाय सिद्ध के अर्हंतनुं लक्ष करवुं ते साचुं धर्मध्यान नथी पण राग छे. अने परमार्थे राग ते आर्त्तध्यान वडे
कदी धर्मध्यान थाय नहि. १६