: फागण : २००६ : आत्मधर्म : ९५ :
छे, टाळवुं नथी पडतुं. चैतन्यनो भरोसो करे तो अनंतकाळनी मिथ्या मान्यता एक क्षणमां टळी जाय छे. श्रीमद्
राजचंद्र आत्मसिद्धिमां कहे छे के–
‘कोटी वर्षनुं स्वप्न पण, जाग्रत थतां शमाय;
तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय.’
सत्समागम अने पात्रता विना आत्मस्वरूप समजाय नहि. जो स्वरूपनुं भान करे तो एक क्षणमां
अनादिनो विभाव दूर थई जाय.
अहा! मारो आनंद स्वभाव छे, सुख मारो स्वभाव छे, परमां सुख नथी. आचार्यदेव कहे छे के ‘हे
अज्ञानी! जो तें क्यांय परमां सुख भाळ्युं होय तो बताव! अने अमे कहीए छीए ते चैतन्यनी समजणना
उपायमां क्यांय दुःख लाग्युं होय तो बताव! जो भाई! अनंतकाळथी आ मार्ग जाण्यो नथी माटे तेने
समजवानो प्रयत्न कर! मुनिओए–ज्ञानीओए–आत्मार्थीओए शास्त्रोमांथी आ चैतन्य रत्नने ज गोत्युं छे.
ए ज अनंत काळनी मिथ्यात्वरूपी भूख भांगवानो उपाय छे. माटे बधा शास्त्रोने तारवीने माखण काढो तो
‘अहो! हुं चैतन्य शुद्ध चिदानंद छुं’ एवुं एक आ चैतन्य रत्न ज नीकळे छे. आ समज्यो ते सर्व शास्त्रोनो
सार समज्यो छे, ने जो आ न समज्यो तो तेणे कांई कर्युं नथी.
ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा
सौराष्ट्रमां परम पूज्य गुरुदेवश्रीना विहार दरमियान तेओश्री वांकानेर पधार्या ते प्रसंगे महा वद ८ ने
शुक्रवारना रोज भाईश्री छगनलाल भाईचंद शाह तथा तेमना धर्मपत्नी हेमकुंवरबेन ए बंनेए सजोडे, तेमज
भाईश्री अमृतलाल नरसिभाई शेठ तथा तेमना धर्मपत्नी जयाबेन ए बंनेए सजोडे, पू. गुरुदेवश्री पासे
आजीवन ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा अंगीकार करी छे. आ माटे ते सर्व ने धन्यवाद! आ ब्रह्मचर्यना शुभप्रसंगे ते दरेक
भाईओए रू।. १००१, श्री वांकानेर जैन स्वाध्याय मंदिरने अर्पण कर्या छे अने ए उपरांत छगनभाई.
तरफथी रू।. २५१, सोनगढ ज्ञानखातामां तथा अमृतलालभाई तरफथी रू।. १०२, ब्रह्मचर्य आश्रममां
आपवामां आव्या छे. आ बदल तेमनो आभार मानवामां आवे छे.
अनुसंधान पाना नं. ८४थी चालु
(१२१) जड कर्मोने टाळनार आत्मा नथी
अहीं द्रव्यकर्म अने शरीरादि संयोगनो नाश करवानुं कह्युं छे ते उपचारथी छे. खरेखर आत्मा तेनो कर्ता
नथी. आत्माए पोताना स्वरूपमां वीतरागीस्थिरता करी त्यां अशुद्धतानो नाश थयो अने अशुद्धतानो नाश थतां
ज्ञानावरणादि कर्मो स्वयं टळी गया. आत्मा ए ते कर्मो टाळ्यां एम मात्र उपचारथी कहेवाय छे.
(१२२) श्रीअरिहंतदेवने शरीरादिनो अभाव केम?
वळी परमात्माने देहादिना संयोगनो पण नाश कह्यो छे. हवे, अरिहंतदेव परमात्मा होवा छतां तेमने
शरीरनो संयोग तो होय छे, छतां ‘शरीरादि छोडीने परमात्मा थया छे’ एम केम कह्युं? तेनुं समाधान: शरीरादि
तो त्रणे काळे आत्माथी जुदां ज छे, परंतु पहेलांं ते प्रत्ये मोह तथा राग–द्वेष हता, ते मोह तथा राग–द्वेषनो
अभाव थयो तेथी शरीरादिनो पण अभाव कहेवामां आव्यो छे एम समजवुं.
(१२३) अरिहंतदशामां प्रतिकूळ संयोग होता नथी
सर्वज्ञ परमात्माने पूर्णदशा थई गई छे प्रतिकूळता सहन करवानुं साधकजीवने होय, पण जेओ सहनशक्ति
पूरी करीने वीतरागता करीने पूर्ण थई गया तेमने बाह्यमां पण प्रतिकूळ संयोगो होता नथी, एटले परमात्मदशा
क्षुधा–तृषादि होता नथी.
(१२४) साधकजीवनो स्वभाव
साधकज्ञानी जीवनुं वलण स्वभाव तरफ छे तेथी तेमने गमे तेवा प्रतिकूळ संयोगोमां एकताबुद्धिथी रागादि
थता नथी. छतां हजी अधूरी दशा छे–साधकभाव छे तेथी बाह्यमां प्रतिकूळ प्रसंग पण होय, परंतु साधकजीवनुं
वलण संयोग तरफ होतुं नथी. गमे तेवा संयोग वखते पण साधकजीवो स्वभावनी द्रष्टिना जोरे शुद्धिमां वृद्धि ज
करे छे–एवो साधकदशानो स्वभाव छे; पूर्णदशा थई गया पछी तो बाह्यमां पण प्रतिकूळ संयोगो (–क्षुधा, तृषा,
रोग वगेरे) होता नथी.
(१२५) आत्मार्थीओए क्या परमात्मानुं ध्यान करवुं?
सर्वज्ञपरमात्माए पोताना केवळज्ञानादिनो पूर्ण लाभ प्राप्त करी लीधो छे; ए परमात्मा जेवो ज तारो