Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ९४ : आत्मधर्म : फागण : २००६ :
तीव्र मायाना–कुटिलताना फळमां ते ढोरमां ऊपजे छे. भद्रिक परिणामना फळमां ते मनुष्यमां ऊपजे छे अने
कांईक दया, दान आदि शुभभाव कर्या होय तेना फळरूपे ते देवमां ऊपजे छे. ए प्रमाणे नरक वगेरे गतिओ छे.
अने ते न्यायथी सिद्ध थाय छे. जेमके, प्रतिकूळ जीवोने मारी नाखवाना क्रूर भावनुं फळ नरक छे. खरेखर कोई
जीव कोईने प्रतिकूळ नथी, परंतु जीवे कल्पना करी छे के आ मने प्रतिकूळ छे. सामा जीवोने मारी नाखवाना क्रूर
भावमां जीवोने मारवानी संख्यानुं के काळनुं माप नथी, तेना परिणाममां क्रूरतानुं एटलुं बधुं जोर छे के, सामे
गमे तेटला जीवो होय, अने गमे तेटलो काळ मारवा पडे तोपण बधाने मारी नाखुं. आवा तीव्र क्रूर परिणामनुं
फळ आ मनुष्यभवमां नथी; तेनुं फळ नरकमां छे.
जे जीवे पुण्य–पापने अधिक मान्यां ने चैतन्यनी अधिकताने भूल्यो, तेणे पुण्यनी लागणीनो अहंकार
कर्यो. पुण्य करतां चैतन्यनी अधिकता न मानी पण पुण्यनी अधिकताने मानी. तेने ते पुण्यना फळथी अधिकाई
भासे छे. ने तेमां अभिमान करे छे. शास्त्रकार आचार्य भगवान कहे छे के आ एक चैतन्य ज परम रत्न छे.
शास्त्ररूपी समुद्रमांथी ते एक चैतन्य रत्न ज ज्ञानीओए काढ्युं छे. एकत्व चैतन्यस्वभावने ओळखवो ते ज
शास्त्रनो सार छे. ‘शुभ अने अशुभ विकार हुं नथी, ने विकाररहित चैतन्य ज्ञानानंद हुं छुं’ एम स्वभावनुं
जोर थतां विकार टळ्‌या विना रहे नहि. आ प्रमाणे चैतन्यने ओळख्या वगर जेटलुं करवामां आवे ते बधुं छार
पर लींपण समान छे.
चैतन्य स्वभावना भान वगर जे कंई पुण्य करवामां आवे ते छार उपर लींपण समान छे. जेम एक
हाथ राखना दळ उपर लींपण करवामां आवे तो ते लींपण राख उपर टके नहि. जेवुं थोडुंक सुकाय त्यां पोपडा
ऊखडवा मंडे. लींपण तो कठण भों उपर चाले, राखना दळ उपर चाले नहि, तेम त्रिकाळी चैतन्यस्वभावना
भान वगर पर लक्षे जे कांई पुण्य करवामां आवे ते छार पर लींपण समान छे. स्वभावनुं भान नथी एटले
थोडा काळमां ते पुण्य पलटीने पाप थई जशे. तेनुं पुण्य लांबो काळ टकशे नहि.
आ चैतन्य एक परम रत्न छे. जड रत्नने जाणनार पण हुं छुं. ते जड रत्ननो महिमा नथी. पण
‘अहो! हुं चैतन्य ज्ञाता रत्न छुं, ने पुण्य–पाप ते अपराध छे,’ एम अपराध वगरना चैतन्य रत्नने जाणवो
तेनुं नाम धर्म छे. आ चैतन्य रत्ननी प्रतीति कर्या वगर मिथ्याद्रष्टिए चोराशी लाख योनिमां अवतार कर्या छे.
चैतन्यस्वभावनो महिमा न आवता, जेणे पुण्य–पापने अधिकाई आपी, तेणे चैतन्यना जीवतरनुं खून कर्युं छे,
अने ते ज भावमरण छे. चैतन्य स्वभावने समज्या वगर ते भावमरण टळे नहि.
प्रश्न :– अनंतकाळ गयो पण न समज्या, तो हवे शी रीते समजाय?
उत्तर :– अनंत काळथी आत्माने समज्यो नथी एटले शुं अत्यारे न समजाय? शुं समजवानी ताकात
चाली गई छे? जेम पाणी अग्निना निमित्ते सो वर्ष सुधी ऊनुं थवा छतां, शुं तेनो शीतळ स्वभाव टळी गयो
छे? चूला उपर पडेलुं ऊनुं पाणी ऊलटुं थतां ते ज अग्निनो नाश करवानी ताकातवाळुं छे. तेम अनंतकाळथी
ऊंधी रुचिना कारणे आत्माने समज्यो नथी. पण हवे जो रुचिमां गुलांट मारे तो क्षणमां समजाय तेवुं छे.
ज्ञानमां आ ऊलटुं करवानी क्रिया थाय छे ते ज्ञानक्रिया जगतने मानवामां आवती नथी. कंईक बहारनुं
करवानुं जगत मागे छे. कांईक शरीरनी क्रिया, पुण्यना भाव करवानुं कहो तो ठीक, पण भाई! जे उपाय होय ते
बतावाय. जेमके– कोई एक माणसना नाम संबंधीनुं अज्ञान तेना नामना ज्ञानथी टळे छे, बीजी गमे तेटली
क्रिया करे, खिस्सामांथी कोईने रूपिया आपी दे, तडके ऊभो ऊभो सुकाई जाय, के महिनाना उपवास करीने
रोटला छोडी दे, पण ते बधुं सामा माणसना नामनुं अज्ञान टाळवानो उपाय नथी; तेम आत्मा संबंधी अज्ञान
आत्माना ज्ञाननी क्रियाथी ज टळे छे. सरवाळामां भूल होय ते कोईने रूपिया आपी दीधे न टळे, पण ज्यां
भूल थई होय तेने जाणीने टाळे तो टळे, तेम चैतन्यमां शुभाशुभ विकारने मूळ स्वरूप मान्युं छे, ते
सरवाळामां भूल छे, तेने बदल हुं चैतन्य छुं, पुण्य–पाप मारा स्वभावमां नथी, एम साची समजण करतां ते
भूल टळे छे. अंधारुं टाळवा माटे प्रकाश ज उपाय छे; प्रकाश थतां अंधारुं टळी जाय