Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २००६ : आत्मधर्म : ९३ :
काम कर्युं, तो मनुष्यभवमां अने अन्य क्षुद्र भवोमां फेर शुं पड्यो? मनुष्यभवमां, तो अन्य भवोमां दुर्लभ
एवुं, आत्मानुं साचुं ज्ञान करवानुं प्रयोजन छे; अने एवुं भान–साची ओळखाण करे त्यारे उपचारथी देहने
पण शुभ मानव देह कहेवाय छे.
ज्ञानी कहे छे के, आवो मानवभव मळ्‌यो, साचुं समजवानां टाणां मळ्‌यां तोये अरे! भवचक्रनो एकके
आंटो टळ्‌यो नहि. अहीं एकनी वात लीधी छे, पण स्वभाव द्रष्टि थतां, एक आंटो टळ्‌यो त्यां बधां आंटा टळी
गया. स्वभावनुं भान थया पछी जीवने भवचक्रमां रखडवानुं रहे नहि, पुरुषार्थनी नबळाईने लीधे अल्प
रागादि रहे तो तेने एक–बे भवमां, स्वभावनी द्रष्टिना जोरे पुरुषार्थ वधारीने टाळी नाखशे. अने पूर्ण
परमात्मा थई जशे.
जगतना जीवोने, ‘आत्मानुं सुख आत्मामां छे, पर पदार्थमां आत्मानुं सुख नथी, ईन्द्रियना विषयोमां
सुख नथी,’ आवुं भान नथी, तेथी तेओ बहारथी सुख प्राप्त करवा मागे छे–मथे छे. ज्ञानीओ तेमने कहे छे के
भाई! तुं ईन्द्रिय–सुख, के जे खरेखर सुख नथी. तेने प्राप्त करवा मागे छे, पण ते प्राप्त करवा जतां–परमां सुख
छे, एवी मिथ्या मान्यतामां–अंदर अविनाशी चैतन्यना विषयातीत, ईन्द्रियातीत अनाकुळ सुखनो घात थाय
छे; अंदर अनाकुळ सुख टळी जाय छे; मिथ्या मान्यताने लीधे तथा रागादि आकुळताने लीधे अवस्थामां सहज
स्वाभाविक सुखनो नाश थाय छे. –ए जरी तो लक्षमां लो. भान करीने स्वभावमां विशेष रमणता करी ठरी
जवानी वात तो आगळ रही, पण प्रथम आटलुं तो लक्षमां लो. अने आ ज्ञानानंद–सुख स्वभावी आत्मानुं
भान कर्या वगर, ‘आ शरीर ते हुं छुं, पुण्य–पाप मारो स्वभाव छे, पुण्य–पापना विकारी भावोथी मने सुख
थाय छे, एवी मिथ्या मान्यतारूप भावमरणमां क्षणे क्षणे कां राची रहो छो?
जुओ भाई! आत्माने चोराशीना अवतारमां रझळतां अनंतकाळ थयो, केमके आत्मा छे ने अनादिनुं
तत्त्व छे. आत्मा अनादिनुं तत्त्व छे तो तेणे अत्यारसुधीनो अनंतकाळ क्यां काढ्यो? जो ते मुक्त थयो होय तो
फरीने तेने अवतार न होय, एटले अत्यारसुधी जीव संसारमां ज रखडयो छे. आत्मा अवस्थामां अनादिनो
अशुद्ध छे, ते न्यायथी समजाववामां आवे छे. जीव वर्तमानमां पण जे क्रोधादि विकार घटाडवा मागे छे ते फरीने
विशेष विकार थवा देतो नथी. तो जेणे स्वभावनुं सम्यग्ज्ञान करी पूर्ण पुरुषार्थ प्रगट करी सर्वथा विकार टळ्‌यो
ने परमात्मा थयो, तेने फरीथी विकार थाय एम बने ज नहि. माटे जीव पहेलांं शुद्ध हतो ने पछी विकार थयो
एम नथी. पण ते अनादिथी अवस्थामां भूलवाळो–विकारवाळो छे.
अनादि संसारमां जीव अनंतवार पुण्य–पाप करीने चार गतिमां रखडयो छे, पण पुण्य–पाप रहित
ज्ञानमूर्ति चैतन्य तत्त्वनी एक सेकंड पण प्रतीत करी नथी. विकार अने पर वडे कल्याण मानीने चैतन्यना
कल्याणने चूकी गयो छे; चैतन्यना कल्याणने चूकवुं तेने ज भयंकर भावमरण कहेवाय छे. ते भावमरण ते ज
चैतन्य भगवानना स्वपदनी हिंसा छे ने ते ज स्वपदनो अनादर छे.
बधां शास्त्रोना सारमां ज्ञानीओए आ ज्ञानानंद, परथी–विकारथी भिन्न चैतन्य रत्नने ज ओळखवानुं
कह्युं छे. बाकी पूर्वना प्रारब्धने लीधे जे संयोग–वियोग थाय ते चैतन्य नथी, अने ते प्रारब्ध पण आत्मानुं
नथी, अने जे भावे प्रारब्ध बंधायुं ते भाव पण आत्मा नथी, शरीरादि संयोगोथी भिन्न, संयोगोनुं निमित्त
प्रारब्ध छे, तेनाथी पण भिन्न, अने प्रारब्धनुं निमित्त शुभाशुभ विकार तेनाथी पण रहित, एवा चैतन्य
स्वरूप आत्मानुं भान करे ते परमात्मा थाय. परमात्मा थया पछी तेने अवतार थाय नहि.
संसारमां–लौकिकमां पण जे जीव परस्त्री आदिनो राग घटाडे छे, ते तेवो राग थवा देतो नथी; तो जेणे
रागरहित त्रिकाळी आत्मस्वभावने जाणीने विकार रहित दशा प्रगट करी ते जीव फरीने विकार करीने अवतार
धारण करे–एम बने नहि.
मनुष्य तरीके लौकिक भूमिकामां पण परस्त्री–त्याग आदि तो होय ज. ते तो साधारण वात छे. एटलुं
तो लौकिकमां पण होय ज एम मानीने, आ तो आगळ आत्मानी साची समजणनी अपूर्व वात थाय छे.
चैतन्य स्वभावनी साची समजण कर्या विना जीव अनादिथी शुभ अने अशुभ विकारो करीने चार
गतिमां भ्रमण करे छे. हिंसा शिकार आदि तीव्र पाप परिणामना फळमां ते नरकमां ऊपजे छे;