एवुं, आत्मानुं साचुं ज्ञान करवानुं प्रयोजन छे; अने एवुं भान–साची ओळखाण करे त्यारे उपचारथी देहने
पण शुभ मानव देह कहेवाय छे.
गया. स्वभावनुं भान थया पछी जीवने भवचक्रमां रखडवानुं रहे नहि, पुरुषार्थनी नबळाईने लीधे अल्प
रागादि रहे तो तेने एक–बे भवमां, स्वभावनी द्रष्टिना जोरे पुरुषार्थ वधारीने टाळी नाखशे. अने पूर्ण
परमात्मा थई जशे.
भाई! तुं ईन्द्रिय–सुख, के जे खरेखर सुख नथी. तेने प्राप्त करवा मागे छे, पण ते प्राप्त करवा जतां–परमां सुख
छे, एवी मिथ्या मान्यतामां–अंदर अविनाशी चैतन्यना विषयातीत, ईन्द्रियातीत अनाकुळ सुखनो घात थाय
छे; अंदर अनाकुळ सुख टळी जाय छे; मिथ्या मान्यताने लीधे तथा रागादि आकुळताने लीधे अवस्थामां सहज
स्वाभाविक सुखनो नाश थाय छे. –ए जरी तो लक्षमां लो. भान करीने स्वभावमां विशेष रमणता करी ठरी
जवानी वात तो आगळ रही, पण प्रथम आटलुं तो लक्षमां लो. अने आ ज्ञानानंद–सुख स्वभावी आत्मानुं
भान कर्या वगर, ‘आ शरीर ते हुं छुं, पुण्य–पाप मारो स्वभाव छे, पुण्य–पापना विकारी भावोथी मने सुख
थाय छे, एवी मिथ्या मान्यतारूप भावमरणमां क्षणे क्षणे कां राची रहो छो?
फरीने तेने अवतार न होय, एटले अत्यारसुधी जीव संसारमां ज रखडयो छे. आत्मा अवस्थामां अनादिनो
अशुद्ध छे, ते न्यायथी समजाववामां आवे छे. जीव वर्तमानमां पण जे क्रोधादि विकार घटाडवा मागे छे ते फरीने
विशेष विकार थवा देतो नथी. तो जेणे स्वभावनुं सम्यग्ज्ञान करी पूर्ण पुरुषार्थ प्रगट करी सर्वथा विकार टळ्यो
ने परमात्मा थयो, तेने फरीथी विकार थाय एम बने ज नहि. माटे जीव पहेलांं शुद्ध हतो ने पछी विकार थयो
एम नथी. पण ते अनादिथी अवस्थामां भूलवाळो–विकारवाळो छे.
कल्याणने चूकी गयो छे; चैतन्यना कल्याणने चूकवुं तेने ज भयंकर भावमरण कहेवाय छे. ते भावमरण ते ज
चैतन्य भगवानना स्वपदनी हिंसा छे ने ते ज स्वपदनो अनादर छे.
नथी, अने जे भावे प्रारब्ध बंधायुं ते भाव पण आत्मा नथी, शरीरादि संयोगोथी भिन्न, संयोगोनुं निमित्त
प्रारब्ध छे, तेनाथी पण भिन्न, अने प्रारब्धनुं निमित्त शुभाशुभ विकार तेनाथी पण रहित, एवा चैतन्य
स्वरूप आत्मानुं भान करे ते परमात्मा थाय. परमात्मा थया पछी तेने अवतार थाय नहि.
धारण करे–एम बने नहि.