Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 17

background image
: ९२ : आत्मधर्म : फागण : २००६ :
अनुकूळ के प्रतिकूळ नथी. शरीरनां रजकणोमां नीरोग अवस्था आत्माने अनुकूळ नथी अने तेमां रोग अवस्था
आत्माने प्रतिकूळ पण नथी, ते तो ज्ञातानुं–चैतन्य तत्त्वनुं–ज्ञेय छे. ज्ञाता चैतन्य तत्त्वने भूलीने परथी मने
लाभ तेम ज नुकसान थाय एवी मान्यता करे ते तेनो भ्रम छे, अज्ञान छे. तेने टाळवानो उपाय चैतन्य तत्त्वने
यथार्थपणे ओळखवो ते छे. भगवान सर्वज्ञोए आ एक ज उपाय कह्यो छे, तथा अनंत ज्ञानीओए–संत
मुनिओए शास्त्ररूपी दरियामांथी आ सार काढ्यो छे के चैतन्य तत्त्वनी रुचि करो ने परनी रुचि छोडो.
आत्मा ज्ञान, दर्शन, आनंद, वीर्य आदि अनंत गुणोनो पिंड परमात्मा छे. तेनामां शक्तिरूपे
परमात्मपणुं भर्युं पड्युं छे, अने अवस्थामां सम्यग्ज्ञानना पुरुषार्थ वडे ते व्यक्त थाय छे. जो तेनामां
परमात्मपणुं शक्तिरूपे न ज होय तो ते अवस्थामां व्यक्तिरूपे प्रगटतारूपे–क्यांथी आवे? न होय तेमांथी आवे
नहि–अभावमांथी परमात्मपणुं आवे नहि. वळी, परमात्मपणुं प्रगटे छे ते बहारथी–शरीरनी क्रियाथी के दया–
दान, व्रत–तप वगेरे शुभ भावोथी प्रगटतुं नथी. शरीर अने तेनी क्रिया जड छे, रूपी छे; तेमांथी के तेनाथी
चैतन्यनुं परमात्मपणुं–मोक्ष–पूर्ण निर्विकारी शांत दशा प्रगटे नहि. दया–दान आदि शुभभाव तो चेतननो
विकार छे. विकारमांथी निर्विकारीदशा प्रगटे नहि. परंतु अंदर चैतन्यस्वभावमां ज्ञान आदि त्रिकाळी शक्तिओ
भरी पडी छे तेमांथी चैतन्यनी पूर्णदशा–मोक्ष प्रगटे छे. जेमके मोरना इंडांना रसमां, साडा त्रण हाथनो, मोटा
पींछावाळो, केकारव करतो, मोर थवानी ताकात छे. इंडांमां मोर थवानी शक्ति, ढेलनी पांखथी तेने सेववामां
आव्युं माटे नथी आवी. जो ढेलनी पांखने लईने मोर थवानी ताकात आवी होय तो कुकडीना इंडांने सेवे
तेमांथी पण मोर थवो जोईए, पण तेम थतुं नथी. माटे ढेलनी पांखना सेवनथी मोरना इंडांमां मोर थवानी
ताकात नथी आवी, वळी, इंडां उपरनी जे धोळी फोतरी, तेने कारणे पण मोर थवानी ताकात नथी आवी, केमके
मोर तो ते फोतरीने फोडीने ने फोतरीनो नाश करीने इंडांमांथी बहार आवे छे; धोळी फोतरी फूटया पछी मोर
बहार आवे छे. माटे फोतरी मोर थवानुं कारण नथी, पण इंडांनी अंदर जे रसकस भर्यो छे, ते रसमां मोर
थवानी शक्ति छे. तेमांथी मोर थाय छे. तेवी रीते शरीरनी क्रिया ढेलनी पांख समान पर पदार्थनी क्रिया छे,
तेनाथी आत्मानो धर्म प्रगटे नहि, तेनाथी आत्मानो परमात्म स्वभाव प्रगटतो नथी. वळी इंडांनी फोतरी
समान व्रत, तप, दया, दान आदि शुभभावमांथी धर्म थतो नथी. शुभभाव विकार छे; ते विकारनो नाश–व्यय
करवाथी धर्म प्रगटे छे, माटे शुभभावथी आत्मानो परमात्म स्वभाव प्रगट थतो नथी. आत्मानो परमात्म
स्वभाव तो अंदर स्वभावमां ज्ञान आदि शक्तिओनो रसकस भर्यो छे तेमांथी प्रगटे छे.
जीव चैतन्य स्वभावने चूकीने परनी–पुण्यनी रुचि करे छे ते ज तेनुं भाव मरण छे.
श्रीमद् राजचंद्र सोळ वर्षनी उंमरे कहे छे के :–
‘बहु पुण्यकेरा पुंजथी शुभदेह मानवनो मळ्‌यो;
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एक्के टळ्‌यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो;
क्षण क्षण भयंकर भाव मरणे कां अहो राची रहो?
ज्ञानीओ जगतना जीवोने कहे छे के हे जीवो! घणा काळे घणा पुण्यना योगे आ मनुष्य अवतार मळे
छे. जीवोनो मोटो भाग अज्ञान, मिथ्यात्व तथा राग–द्वेषनी तीव्रताने लीधे निगोद–बटाटा, सक्करकंद, अने
लींमडा, पीपळादि एकेन्द्रियना भवोमां जन्मे–मरे छे. केटलाय ईयळादि बे–ईन्द्रिय, मकोडा आदि त्रण–ईन्द्रिय
वगेरे योनिमां जन्मे छे अने मरे छे. ते बधामां मनुष्यभवनी प्राप्ति घणी दुर्लभ छे. घणा पुण्यना थोके
मनुष्यभव, आर्यकुळ, सत्समागमनो योग मळे छे. मनुष्य देहने शुभदेह एटला माटे कहेवामां आवे छे के,
मनुष्य भवमां, ‘शरीर आदि पर पदार्थथी भिन्न अने मिथ्यात्व–राग–द्वेषना विकारोथी रहित आत्मानुं स्वरूप
शुद्ध ज्ञानानंद छे,’ एवा सत्–श्रवणनो अने सत् समजवानो अवकाश, जो जीव पोते सत्समागम करीने सत्
समजवानो पुरुषार्थ करे तो, मुख्य छे. अनंतकाळे दुर्लभ मनुष्यभव मळे अने साचुं समजवानी जीज्ञासा के
महेनत न करे तो ते मनुष्यभवमां के कागडा–कूतरानां भवमां कांई तफावत नथी; कारण के अन्य प्राणीओ पण
आहार–भय आदि चार संज्ञामां जीवन गाळे छे, अने आणे मनुष्यभवमां पण ए ज