Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २००६ : आत्मधर्म : ९१ :
क्रोध करे अने पछी एकादि सेकन्ड पछी तरत ज पश्चात्ताप करे के ‘वडीलोनी समक्ष में आ क्रोध कर्यो ते बहु खोटुं
कर्युं’ वगेरे अनेक प्रकारना भावो जीव करे छे अने बदले छे. जडमां पण शरीर प्रथम बाळ होय पछी युवान,
वृद्धत्वादि अवस्थारूपे के नीरोग अवस्थाथी रोगादि अवस्थारूपे अने रोग अवस्थाथी नीरोग अवस्थारूपे
बदले छे. ए प्रमाणे दरेक जीव पदार्थ तेम ज दरेक जड पदार्थ भिन्न भिन्न, कायम टकीने पोतानी अवस्थामां
बदले छे, जीव तेम ज जड बन्नेना स्वभावो भिन्न छे, बंनेनी हयाती जुदी छे. कोई एकबीजानुं कांई करता
नथी. जड जडना स्वभावे टकीने बदले छे अने चेतन पोताना स्वभावे टकीने स्वभावरूप के विभावरूप बदले
छे. ज्यांसुधी आत्मानी साची ओळखाण न होय त्यांसुधी विभावरूप बदले छे, अने साची समजण करी तेटले
अंशे स्वभावरूप अवस्था थई, पछी जे कांई थोडो रागादि विकारनो भाग छे तेने स्वभावनी द्रष्टिवडे
पुरुषार्थथी अनुक्रमे टाळीने स्वभावरूप पूर्ण अवस्था प्रगट करशे. आवुं यथार्थ भान जीवोए अनादिकाळथी
एक सेकन्ड पण कर्युं नथी, अने जो एक सेकन्ड मात्र पण आवा आत्मानुं भान यथार्थपणे कर्युं होय तो तेने
जन्म–मरणमां भटकवानुं रहे नहि. अल्पकाळमां ते मुक्तदशाने पामे.
माटे आत्मानी साची समजणरूप धर्म जेने करवो छे तेणे सत् समागम वडे शास्त्ररूपी दरियामांथी शुं
शोधवुं? अनंत ज्ञानीओ–मुनिओ थई गया, तेमणे शास्त्ररूपी दरियामांथी आ एक चैतन्य रत्नने ज शोध्युं छे,
ते चैतन्य तत्त्व केवुं छे? आत्मामां दया, दान वगेरे लागणीओ थाय ते शुभ छे, पुण्य छे अने हिंसा, जूठुं वगेरे
लागणीओ थाय ते अशुभ छे, पाप छे. बन्ने प्रकारनी लागणीओ विकार छे, आत्मानो खरो स्वभाव नथी,
जेम स्फटिक मणिमां रातां–काळां लूगडांना संबंधे राती–काळी झांय देखाय ते स्फटिकनो मूळ स्वभाव नथी.
स्फटिकनो मूळ स्वभाव तो ऊजळो, राती, काळी झांय वगरनो छे; तेम आ चैतन्य रत्नमां पुण्य–पापनी
लागणी थाय ते तेनो खरो स्वभाव नथी, विकार छे अने ते विकार टाळ्‌यो टळी जाय छे, माटे खरेखर पुण्य–
पाप आत्माना नथी.
शरीर, मन तथा वाणी वगेरे पर पदार्थनो तो आत्मामां त्रिकाळ अभाव छे; कारण के दरेक तत्त्व स्वपणे
छे अने ते ज तत्त्व परपणे नथी, आत्मा–चैतन्य रत्न पोतापणे छे अने ते ज चैतन्य रत्न शरीरादिपणे नथी,
माटे चैतन्यनो शरीरादिमां अभाव छे अने शरीरादिनो चैतन्यमां अभाव छे. तेथी चेतन तेम ज जड तत्त्वो
त्रणे काळे भिन्न भिन्न वर्ती रह्या छे.
वळी, जीवनो स्वभाव केवो छे के :–
‘जिन निरमलता रे रतन स्फटिकतणी,
तिम ए जीव स्वभाव;
ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशीयो,
प्रबल कषाय–अभाव........... श्री
ए प्रमाणे शरीर, मन तथा वाणीथी भिन्न तेम ज रागादि विकारथी रहित एवा पोताना चैतन्य
रत्ननो निर्णय करवो के ‘हुं त्रिकाळी शुद्ध स्वाभाविक एक चैतन्य रत्न छुं, तेने भगवान धर्म कहे छे.
प्रश्न :– आ तो समजणनी वात करी पण अमारे करवुं शुं?
उत्तर :– भाई! शुं करवुं? अने जीव शुं करी शके छे? तेनो आ उत्तर छे. आत्मामां परनो अभाव छे
अने परमां आत्मानो अभाव छे. तेथी तेओ एक बीजानुं कांई करी शकता नथी. अज्ञानीने आ प्रमाणे
पदार्थना भिन्नपणानुं, जुदापणानुं ज्ञान नहि होवाथी परथी भिन्न आत्मानुं पृथक्पणुं तेने श्रद्धा–ज्ञानमां एक
सेकन्ड पण आवतुं नथी, तेथी परनुं करुं एवी भ्रमणा तेने थाय छे.
आत्मा पर पदार्थनुं तो कांई करतो नथी, परंतु पुण्य–पापनी लागणी थाय ते पण कृत्रिम छे, क्षणिक
औपाधिकभाव छे. तेनाथी आत्माने धर्म थतो नथी. अज्ञानीने ‘पुण्य–पाप ते हुं, पुण्य–पाप मारां, एनाथी मने
धर्म थाय’ एवी बुद्धि खसती नथी. पुण्य–पाप विकार छे; विकारथी आत्मानो निर्विकारी धर्म थाय नहि, अज्ञानीने
विकारथी धर्म थाय ए मान्यता फेरव्ये छूटको छे; मान्यता फेरव्या सिवाय धर्मनो बीजो कोई उपाय नथी.
शरीर, वाणी तथा मननां रजकणो त्रिकाळी स्वतंत्र पदार्थ छे. ते रजकणोमां रूपांतर–जुदी जुदी
अवस्थाओ थाय छे. ते जुदी जुदी अवस्थाओमां आत्माने कोई