कर्युं’ वगेरे अनेक प्रकारना भावो जीव करे छे अने बदले छे. जडमां पण शरीर प्रथम बाळ होय पछी युवान,
वृद्धत्वादि अवस्थारूपे के नीरोग अवस्थाथी रोगादि अवस्थारूपे अने रोग अवस्थाथी नीरोग अवस्थारूपे
बदले छे. ए प्रमाणे दरेक जीव पदार्थ तेम ज दरेक जड पदार्थ भिन्न भिन्न, कायम टकीने पोतानी अवस्थामां
नथी. जड जडना स्वभावे टकीने बदले छे अने चेतन पोताना स्वभावे टकीने स्वभावरूप के विभावरूप बदले
छे. ज्यांसुधी आत्मानी साची ओळखाण न होय त्यांसुधी विभावरूप बदले छे, अने साची समजण करी तेटले
अंशे स्वभावरूप अवस्था थई, पछी जे कांई थोडो रागादि विकारनो भाग छे तेने स्वभावनी द्रष्टिवडे
पुरुषार्थथी अनुक्रमे टाळीने स्वभावरूप पूर्ण अवस्था प्रगट करशे. आवुं यथार्थ भान जीवोए अनादिकाळथी
एक सेकन्ड पण कर्युं नथी, अने जो एक सेकन्ड मात्र पण आवा आत्मानुं भान यथार्थपणे कर्युं होय तो तेने
जन्म–मरणमां भटकवानुं रहे नहि. अल्पकाळमां ते मुक्तदशाने पामे.
ते चैतन्य तत्त्व केवुं छे? आत्मामां दया, दान वगेरे लागणीओ थाय ते शुभ छे, पुण्य छे अने हिंसा, जूठुं वगेरे
लागणीओ थाय ते अशुभ छे, पाप छे. बन्ने प्रकारनी लागणीओ विकार छे, आत्मानो खरो स्वभाव नथी,
जेम स्फटिक मणिमां रातां–काळां लूगडांना संबंधे राती–काळी झांय देखाय ते स्फटिकनो मूळ स्वभाव नथी.
स्फटिकनो मूळ स्वभाव तो ऊजळो, राती, काळी झांय वगरनो छे; तेम आ चैतन्य रत्नमां पुण्य–पापनी
लागणी थाय ते तेनो खरो स्वभाव नथी, विकार छे अने ते विकार टाळ्यो टळी जाय छे, माटे खरेखर पुण्य–
पाप आत्माना नथी.
माटे चैतन्यनो शरीरादिमां अभाव छे अने शरीरादिनो चैतन्यमां अभाव छे. तेथी चेतन तेम ज जड तत्त्वो
त्रणे काळे भिन्न भिन्न वर्ती रह्या छे.
उत्तर :– भाई! शुं करवुं? अने जीव शुं करी शके छे? तेनो आ उत्तर छे. आत्मामां परनो अभाव छे
पदार्थना भिन्नपणानुं, जुदापणानुं ज्ञान नहि होवाथी परथी भिन्न आत्मानुं पृथक्पणुं तेने श्रद्धा–ज्ञानमां एक
सेकन्ड पण आवतुं नथी, तेथी परनुं करुं एवी भ्रमणा तेने थाय छे.
धर्म थाय’ एवी बुद्धि खसती नथी. पुण्य–पाप विकार छे; विकारथी आत्मानो निर्विकारी धर्म थाय नहि, अज्ञानीने
विकारथी धर्म थाय ए मान्यता फेरव्ये छूटको छे; मान्यता फेरव्या सिवाय धर्मनो बीजो कोई उपाय नथी.