Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ९० : आत्मधर्म : फागण : २००६ :
अह, चतन्य रत्न!
[वढवाण केम्पमां परमपूज्य सद्गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन पोष वद ११]
जेने आत्मानो धर्म करवो छे तेणे धर्म शुं चीज कहेवाय? अने ते क्यांथी प्रगटे? ते प्रथम जाणवुं
जोईए. कारण के–
‘धरम धरम करतो जग सहु फीरे,
धरम न जाणे हो मर्म, जिनेश्वर!’
आखुं जगत धरम. धरमनी वातो करे छे, परंतु धर्मनो मर्म शुं? धर्मनुं साचुं स्वरूप शुं? धर्म क्यां रहेतो
हशे? धर्म शेमां थतो हशे? तेना साचा स्वरूपनी लोकोने खबर नथी. धर्म शुं शरीरनी क्रियामां थतो हशे?
शरीरनी क्रिया तो जडनी अवस्था छे, जडमां आत्मानो धर्म थतो हशे? वळी, आत्मामां दया, दान तथा
पूजादिना भावो थाय छे ते शुभराग छे,–आत्मानी विकारी दशा छे. ते विकारी दशाथी आत्मानी अविकारी
निर्मळ दशारूप धर्म थतो हशे? विकारथी अविकारी स्वभाव प्रगटे नहि. ए प्रमाणे धर्मना मर्मनी खबर नहि
होवाथी लोकोनी रुचि परमां ज छे; ‘देह, वाणी वगेरे परथी भिन्न हुं चैतन्य, ज्ञानानंद तत्त्व छुं’ एवुं भान न
करे त्यांसुधी परनी रुचि खसे नहि.
ते ज्ञानानंद स्वरूप चैतन्य तत्त्वनी रुचि कराववाने माटे आचार्य भगवान चैतन्यस्वरूप आत्मानी
महिमा नीचेना श्लोक द्वारा कहे छे.
तदेवैकं परं रत्नं सर्वशास्त्रमहोदधेः।
रमणीयेषु सर्वेषु तदेकं पुरतः स्थितम्।।
पद्मनंदी–एकत्व–अशिति. गा. ४३.
ते ज एक (चैतन्यस्वरूप आत्मा ज एक) सर्व शास्त्ररूपी महा समुद्रनुं उत्कृष्ट रत्न छे, (लोकमां) सर्व
रमणीय पदार्थोमां ते ज एक (चैतन्यस्वरूप आत्मा ज एक) (सर्वनी) आगळ (–सर्व प्रथम) रहेलो छे.
चैतन्यस्वरूप आत्मा एक ज उत्कृष्ट रत्न छे. ज्ञानीओने बधां शास्त्रोरूपी समुद्रने डोळतां आ एक चैतन्य
रत्न ज प्राप्त थयुं. चैतन्य आत्मा जाणनार अने देखनार स्वभावी पदार्थ छे. ते ज्ञान, दर्शन, आनंद वगेरे अनंत
गुणोना समुदायरूप अखंड एक पदार्थ छे. शरीर वगेरे जड पदार्थोथी भिन्न छे, एवा भिन्न चैतन्यने जाण्या विना,–
तेनी साची ओळखाण कर्या विना, बहारना क्रियाकांडमां कषाय मंद करे तो पुण्य थाय, परंतु ते मंद कषाय धर्म नथी;
अने क्रियाकांडमां जडनी क्रियानो कर्ता थाय तथा शुभराग–मंद कषायने धर्म माने तो साथे मिथ्यात्त्वरूपी महा पाप
थाय. माटे देहादिनी क्रियाथी भिन्न तथा शुभाशुभ विकार रहित चैतन्यस्वरूप आत्माने समज्ये ज छूटको छे. जीवे
अनादिकाळथी आत्माने जाण्यो नथी. आत्मा अनादि अनंत छे. जीवोए अनंतकाळथी आत्मा कोण? तेनी
ओळखाण एक सेकन्ड पण करी नथी. आत्मा देहथी जुदो पदार्थ छे अने देह जड, रूपी पुद्गलोना ढींगलारूप जुदो
पदार्थ छे. देहना–वाणीना रजकणे रजकणनी क्रिया स्वतंत्र छे. आत्मानी ईच्छाथी शरीरनी क्रिया थती नथी. जो शरीर
उपर ईच्छा काम करती होय तो शरीरमां रोग होय तेने मटाडी दे, पण ईच्छाथी रोग मटतो नथी; अने जो ईच्छाथी
वाणी नीकळती होय तो ईच्छा घणी होवा छतां पक्षघातवाळा, लकवावाळा बोली शकता नथी, तोतडी जीभवाळा
स्पष्ट भाषा बोलवानी घणी ईच्छा करे छे, परंतु स्पष्ट बोली शकता नथी, माटे आत्मानो जड एवा देह, वाणी आदि
पर पदार्थ उपर अधिकार नथी, तेओ आत्माथी भिन्न स्वतंत्र एवां पुद्गलोनां रजकणोनी अवस्थाओ छे, अने
आत्मा तेमनाथी भिन्न मात्र जाणनार–देखनार स्वभावरूप, ज्ञान, आनंद आदि पोताना स्वभावोथी अभिन्न वस्तु
छे, ते अनादि अनंत शाश्वत पदार्थ छे. तेने कोईए नवो बनाव्यो नथी अने तेनो कदी सर्वथा नाश थतो नथी, पण
पोताना स्वभावोथी कायम रहीने तेनी अवस्थामां रूपांतर थाय छे, ते तेनी हालतो–पर्यायो बदलीने शक्तिरूपे–मूळ
स्वभावरूपे कायम रहे छे. मूळ स्वभावरूप पदार्थ–दरेक पदार्थ, जीव के जड–कदी नवो थतो नथी तेम ज भविष्यमां
कदी तेनो नाश थतो नथी, मात्र टकीने अवस्था–वर्तमान हालत–पर्याय बदले छे. जेमके जीव कायम टकीने पोतामां
जुदा जुदा भावो क्षणे क्षणे बदले छे, घडीकमां तीव्र