Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787



पर पदार्थो आत्माथी तद्न जुदां होवा छतां परथी मने लाभ–नुकसान थाय अने हुं परने लाभ–
नुकसान करुं –एवी मिथ्याबुद्धि ते ज संसार छे. दरेक तत्त्व पोताना स्वभावथी पूर्ण छे, तेनुं जेने भान नथी ते
जीव एक तत्त्वने बीजा तत्त्वनो आश्रय माने छे. हुं मारा चैतन्यस्वभावथी परिपूर्ण छुं, मारी मुक्ति माटे
बहारनो आश्रय मने जरा पण नथी–एम पोतानी पूर्णतानो विश्वास न करतां, मारी मुक्ति माटे कांईक परनी
के पुण्यनी सहाय जोईए–एम मानीने पराश्रये अनंतकाळथी जीव भटकी रह्यो छे. जेम कस्तूरिया मृगनी डूंटीमां
ज सुगंधी कस्तूरी रहेली छे. पण तेने तेनो विश्वास नथी तेथी ते बहार दोडे छे. ‘हुं तो जंगलनुं घास खाईने
जीवनार अने जराक अवाज थतां डरनार प्राणी, मारामां आवी ऊंची सुगंध क्यांथी होय?–एम पोतानी
शक्तिनो अविश्वास ज तेने बहारमां भमावे छे. तेम जीवने मुक्त थवुं छे–सुखी थवुं छे, पण मुक्त अने सुखी
थवानुं सामर्थ्य पोतामां भर्युं छे तेनो विश्वास न करतां, क्यांक निमित्तना आश्रये के व्यवहारना आश्रये मुक्ति
थशे एम मानीने बर्हि बुद्धिथी संसारमां भ्रमण करे छे. हुं तो अल्पज्ञ अने रागी, मारे चा वगर पण न
चाले, तो मारामां सिद्ध परमात्मा थवानी ताकात क्यांथी होय?–एम पोताना स्वभाव सामर्थ्यनो अविश्वास ज
जीवने संसारमां रखडावे छे. जगत पोतानी अंर्त शक्तिने भूलीने बहारमांथी सुख अने शांति लेवा मथे छे,
अने सुख–शांतिना रस्ता क्यांथी हाथ आवे? ज्ञानीओ कहे छे के ‘सर्व जीव छे सिद्ध सम, जे समजे ते थाय.’ –
दरेक जीव सिद्ध भगवान जेवा परिपूर्ण स्वभाव सामर्थ्यवाळो छे. अवस्थामां राग–द्वेष अने अल्पज्ञता होवा
छतां स्वभावमांथी सिद्ध थवानी ताकात मटी गई नथी. जे जीवो सिद्ध थया तेमने पण पहेलांं तो अवस्थामां
राग–द्वेषादि भावो हता, अने स्वभावनी श्रद्धाना जोरे ते राग–द्वेषनो नाश करीने सिद्ध थया छे, ते सिद्ध दशा
क्यांथी आवी? बहारथी आवी नथी, पण आत्मामां ज शक्तिपणे हती, तेमांथी प्रगटी छे. वर्तमान अवस्थामां
रागादि होवा छतां तेने मुख्यता न करतां (राग–जेटलो ज पोताने न मानता), सिद्ध भगवान जेवुं ज सामर्थ्य
मारा आत्मामां भर्युं छे, अनंत सिद्ध दशाओ प्रगटवानी ताकात मारा स्वभावमां छे–एम जो स्वसन्मुख थईने
पोताना स्वभाव सामर्थ्यनो विश्वास करे तो तेना आश्रये अल्पकाळे अवस्थामांथी रागादिनो अभाव थईने
सिद्ध दशा प्रगट थाय. पण जीव पोताना स्वभावनी ओळखाण अने प्रतीत करतो नथी, ने राग–द्वेष ते ज हुं–
एवी पक्कड करी छे. श्री आचार्य भगवान कहे छे के हे जीव! ए विकारबुद्धि छोड, छोड. प्रभु! हवे एकवार
स्वभावबुद्धि कर, के विकार जेटलो हुं नहि पण सिद्ध समान हुं. अनादिथी स्वभावने भूलीने विकारनी पक्कड
करी छे तेथी ज भ्रमण थयुं छे, हवे तो ते मिथ्या पक्कडने छोड, छोड.
–पद्म. एकत्व अधिकार. गा. २६. मागशर वद १३ चूडा शहेरमां पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.
मुद्रक :– चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय: मोटा आंकडिया : सौराष्ट्र ता. ३१–३–५०
प्रकाशक :– जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया : सौराष्ट्र