Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २००६ : आत्मधर्म : ११९ :
• अज्ञानीनी ऊंधी दोड •
जीव अनादिथी छे, तेनी अवस्थामां भूल पण अनादिथी छे. जो स्वभावनी ओळखाण करीने एकवार
पण भूल सर्वथा टळी जाय तो फरीथी भूल थाय नहि. ते अनादिनी भूल आत्मानी साची समजणथी ज टळे
छे, बीजो कोई उपाय नथी. जेम घणा काळना अंधाराने टाळवा माटे पावडा ने कोदाळी न होय, पण प्रकाश वडे
ज ते टळे छे. तेम आत्मामां अनादिनो जे मिथ्यात्वरूपी अंधकार छे ते सम्यग्ज्ञानरूपी प्रकाशथी ज टळे छे. वस्तु
स्वभावना साचा निर्णय वगर कदी मिथ्यात्वनो के राग–द्वेषनो अभाव थाय ज नहि. आत्मस्वभावना
निर्णयद्वारा ज मिथ्यात्वनो अने विकल्पोनो नाश थाय छे. खरेखर ते मिथ्यात्वादिनो नाश करवानी वात
उपचारथी छे. ते मिथ्यात्वादि भावो हता अने तेनो नाश कर्यो एम नथी पण जीव पोताना स्वभाव तरफ
एकाग्र थयो त्यां मिथ्यात्वादि भावोनी उत्पत्ति ज थई नहि, तो नाश कोनो करे? मिथ्यात्वादि भावनी उत्पत्ति
न थई ते अपेक्षाए तेनो नाश कर्यो–एम कह्युं.
पहेलांं सत्समागमे वारंवार श्रवण अने मनन करीने अंतरमां वस्तु स्वभावने लक्षमां लेवो जोईए.
आत्मामां अनंतगुणो छे, तेमां एक श्रद्धा गुण छे. ते श्रद्धागुणनी वर्तमान अवस्थामां अनादिथी ‘विकार ते हुं’
एम धारी राख्युं छे ते अधर्म छे. राग ते हुं नहि, एकरूप चैतन्यस्वरूप हुं छुं–एम श्रद्धागुणनी वर्तमान
अवस्थामां पोताना शुद्ध स्वभावने धारी राखवो तेनुं नाम अपूर्व सम्यग्दर्शन धर्म छे. अनादिकाळमां बीजुं
बधुं कर्युं पण आवुं सम्यग्दर्शन कदी एक सेकंड पण प्रगट कर्युं नथी. पोताना स्वभावना भान विना जीवोए
बहारमां–शरीरादिनी क्रियामां धर्म मानी लीधो छे. श्री आनंदघनजी कहे छे के–
दोडत दोडत दोडत दोडीयो,
जेती मननीरे दोड... जिनेश्वर,
प्रेम प्रतीत विचारो ढूंकडी,
गुरुगम लेजो रे जोड... जिनेश्वर... धर्म ०
अहो! धर्मना रस्ता तो अंतरमां छे, पण अज्ञानी जीवे बहारमां दोट मूकी छे. जे दिशामां रस्तो होय
तेनाथी ऊंधी दिशामां दोडे ते क्यारे धारेला स्थाने पहोंचे? तरस्या हरणां मृगजळमां भ्रमथी पाणी मानीने ते
तरफ दोडया ज करे छे. तेम चैतन्य तत्त्वने भूलेलो अज्ञानी जीव भ्रमथी बहारमां–शरीरनी क्रियामां ने
पूजाभक्ति–उपवास वगेरे पुण्यमां धर्म मानीने अनादिथी रागमां दोडादोड करी रह्यो छे, पण हजी धर्मनो अंश
पण हाथ आव्यो नहि. कयांथी धर्म थाय? ते देहनी क्रियामां के रागमां धर्म होय तो थाय ने? जेम मृगजळमां
खरेखर पाणी नथी, तेम अज्ञानीए मानेली जडनी क्रियामां ने शुभरागमां धर्म नथी. अनादिकाळथी जीव व्रत–
उपवासादि शुभ भाव करतो आवे छे, छतां हजी आत्मानी भ्रमणा तो टळी नथी. माटे धर्मनो मार्ग कांईक जुदो
छे. मूढ जीवो एटलुं पण विचारता नथी के जो देहनी क्रियाथी के पूजाभक्ति वगेरे शुभरागथी धर्म थतो होय तो,
ते भाव तो अनंतवार कर्या छतां केम मुक्ति न थई? जे भावथी पूर्वे धर्म न थयो ते भावथी अत्यारे धर्म
क्यांथी थशे? मृगजळ तरफ दोडतुं हरणीयुं एटलुं पण विचार करतुं नथी के हुं घणा वखतथी दोडुं छुं छतां हजी
पाणीनी ठंडी हवा पण देखाती नथी. माटे त्यां पाणी नहि होय. जो पाणी होय तो कंईक ठंडी हवा तो आववी
जोईए ने! मृगजळनी माफक देहादिनी क्रियामां अने शुभरागमां धर्म मानीने अनादिथी व्रतादि शुभराग
अनेकवार कर्या, छतां हजी भवभ्रमणनो आरो देखातो नथी, अने आत्मानी भ्रमणा पण टळती नथी. तो
विचार करवो जोईए के मार्ग कांईक बीजो छे. जो धर्मनो यथार्थ मार्ग ल्ये तो पोताने अंतरमां विश्वास आवी
जाय के हवे अल्पकाळे मुक्ति थवानी छे. जो पोताने अंतरमां मुक्तिनो विश्वास न आवे तो ते धर्मनो यथार्थ
रस्तो ज नथी.
–पद्म. एकत्व अधिकार. गा. २६ मागशरवद १३ चूडा शहेरमां पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.