Atmadharma magazine - Ank 079
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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• धर्मी जीवन मत •
पद्मनंदि पंचविंशतिनो एकत्व – अधिकार वंचाय छे.
आत्मा अनादि ज्ञानस्वभावी वस्तु छे. धर्म अने अधर्म बंने तेनी अवस्थाओ छे. आत्मानो धर्म के अधर्म
आत्मानी अवस्थाथी जुदो न होय. आत्मा शुं चीज छे अने तेने धर्म–अधर्म क्यां थाय छे ते वात जीवोए
अनंतकाळथी जाणी नथी. आत्मा कोई संयोगी चीज नथी पण स्वभाविक वस्तु छे. जेम लाकडुं घणा परमाणुओ भेगां
थईने बनेली संयोगी चीज छे, तेम आत्मा घणा पदार्थो भेगां थईने बनेलो नथी, पण स्वतःसिद्ध अखंड पदार्थ छे. जे
स्वरूपे आत्मानुं होवापणुं छे तेना भान विना बीजी रीते होवापणुं मान्युं छे, तेथी जीव संसारमां रखडे छे, ते
रखडवानुं केम टळे तेनी आ वात छे.
सयोगेन यदायातं मत्तम्तत्सकलं परम
तत्परित्यागयोगेन मुत्तोऽहमिति मे मतिः।। २७।।
सम्यग्द्रष्टि एम विचारे छे के जे वस्तुओ संयोगथी उत्पन्न थई छे ते बधी माराथी भिन्न छे. संयोगथी उत्पन्न
थयेल ते समस्त वस्तुओना त्यागथी हुं मुक्त छुं–एवी मारी मति थई छे, अर्थात् मारो स्वभाव समस्त पर
वस्तुओथी भिन्न, मुक्त–स्वरूप छे–एवी मारी मति थई छे. बस! आ ‘हुं मुक्त–स्वरूप छुं’ एवी मति थई ते ज
संसारपरिभ्रमण मटाडवानो अने मुक्तदशा प्रगटाववानो उपाय छे.
हुं रागी छुं, हुं शरीरवाळो छुं–एवी सयोगबुद्धि ते अधर्म छे. धर्मी जीव पोताना मतिज्ञानने स्वभाव तरफ
वाळीने कहे छे के ‘मुक्तोऽह इति मे मतिः’ –हुं मुक्त छुं एवी मारी मति छे. आम धर्मीने पोताने पोतानी निःशंकता
आवी जाय छे. संयोगे आवेली कोई चीज मारी नथी. शरीर, मन, वाणी हुं नथी, अने संयोग तरफना वलणथी थयेली
शुभ–अशुभ लागणीओ पण हुं नथी.
धर्म करनार जीवनी मति केवी होय? अथवा केवी मान्यताथी जीवने धर्म थाय? तेनी आ वात छे. आ
एकत्वअधिकार छे; धर्मी जीव पोताना ज्ञाननुं एकत्व क्यां करे छे ते वात आचार्यदेवे आ गाथामां मूकी छे. शरीर ते हुं
के राग ते हुं–एम शरीरमां के रागमां धर्मी जीव ज्ञाननुं एकत्व करता नथी, पण हुं मुक्तस्वरूप छुं–एम पोताना
स्वभाव तरफ ज्ञाननुं एकत्व करे छे. शरीरनी क्रिया हुं करुं छुं ने पुण्य करतां करतां धर्म थशे–एवी जेनी बुद्धि छे तेने
‘हुं मुक्त छुं’ एवी मति थाय नहि एटले के सम्यग्ज्ञान थाय नहि. सम्यग्ज्ञानी–चोथा गुणस्थानवाळो धर्मात्मा एम
जाणे छे के शरीर, मन, वाणी के तेनी कोई क्रियाओ मारी नथी अने पुण्य के पापनी वृत्तिनुं उत्थान थाय ते पण
संयोगे थयेलो विकार छे, ते मारी स्वाभाविक चीज नथी. ए प्रमाणे संयोग अने संयोगीभाव तरफनुं वलण छोडीने
अंतरमां ज्ञायकस्वभाव सन्मुख थतां ‘हुं मुक्त छुं’ एवो मारो अनुभव छे.
जेम नाळियेरमां छोतां अने काचली सफेद टोपराथी जुदां छे, ने टोपरा उपरनी जे राती छाल छे ते पण
काचली तरफनो भाग छे, सफेद अने मीठो टोपरानो गोटो ते त्रणेथी भिन्न छे. तेम आ ज्ञायकमूर्ति आनंदरसनो कंद
भगवान आत्मा, शरीररूपी छोतांथी, कर्मरूपी काचलीथी अने रागद्वेषरूपी रातपथी भिन्न छे. क्षणिक पर्यायमां जे
रागद्वेष थाय छे ते मारा स्वभावने आश्रये थयेलो भाव नथी एटले ते मारो स्वभावभाव नथी पण संयोगना
आश्रये थयेला होवाथी संयोगी भाव छे. जे कोई पण संयोगे आवेला भावो छे ते बधा माराथी पर छे, हुं मुक्तस्वरूप
छुं–आवी धर्मीनी मति होय छे.
‘हुं मुक्तस्वरूप छुं’ एवा अभिप्रायथी मुक्तिना मार्गनी शरूआत थाय के ‘हुं रांको छुं, हुं बंधायेलो छुं, हुं रागी
छुं’ एवा अभिप्रायथी मुक्तिना मार्गनी शरूआत थाय? हुं मुक्तस्वरूपी छुं–एवो सम्यक् अभिप्राय थया वगर मुक्ति
तरफनो पुरुषार्थ प्रगटे नहि. भगवान्! ‘आ मारां ने हुं एनो’ एवो जे संयोगी चीजनो अहंकार ते तारा स्वभावनी
द्रढतानो नाश करे छे. चैतन्यने चूकीने परमां अहंबुद्धिथी क्षणे क्षणे तारा ज्ञाताभावमय जीवननुं मरण थाय छे.
संयोगबुद्धिनुं फळ संसार छे, अने हुं मुक्त छुं–एवी स्वभावबुद्धिनुं फळ मुक्ति छे. दया, भक्ति, हिंसा वगेरे जे विकारी
भावो थाय छे ते पहेलांं न हता ने संयोगे नवा थयेला छे एटले ते भावो संयोगी छे. आत्मा संयोगे थयेलो नथी पण
त्रिकाळी एकरूप स्वाभाविक पदार्थ छे. धर्म करवो होय एटले के मुक्ति करवी होय ते जीवने पहेलां तो एवी मति थाय
के वस्तु त्रिकाळ मुक्त छे, मोक्षदशा प्रगट थाय पहेलांं ज वस्तुस्वभावे तो हुं मुक्त ज छुं. जेम टोपरामां रताश अने
काचली तेनो स्वभाव नथी तेथी ते जुदां पडी जाय छे, पण धोळाश अने मीठास तेनो स्वभाव छे तेथी ते जुदां पडी
शकतां नथी. तेम आ चैतन्यमूर्ति आत्मामां रागादि भावो थाय ते तेनो स्वभाव नथी तेथी मुक्तदशामां ते टळी जाय
छे, पण ज्ञान अने आनंद तो तेनो स्वभाव छे, ते कदी टळतो नथी. आम ओळखीने, रागादि संयोगीभाव ते हुं नहि
पण रागरहित वीतराग ज्ञाताद्रष्टा मुक्तस्वरूप ते हुं–आवी प्रतीत करवी ते मुक्तिनुं साधन छे.
– पद्म. एकत्व अधिकार गा. २७ मागसर वद १४ चूडा शहेरमां पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.