: १३८ : आत्मधर्म : वैशाख : २००६ :
आत्मभ्रांति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद सुजाण; गुरुआज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान.
शरीरमां रोग थाय तेनुं दुःख आत्माने नथी, पण आत्म–स्वरूपनी भ्रांतिथी परमां पोतापणुं माने छे. ते ऊंधी
मान्यतानुं अनंत दुःख छे. सत्समागमे आत्मानी यथार्थ ओळखाणवडे ज ते दुःख टळे छे. आ आत्मानो चिदानंद
स्वभाव छे, ते बधा पर संयोगथी जुदो छे; तेथी कोई प्रतिकूळ संयोगनुं तेने दुःख नथी, तेम ज कोई अनुकूळ
संयोगनुं सुख नथी. पण संयोगमां ‘आ हुं, अने आ मने थयुं’ एवी जे एकत्वबुद्धि छे ते ज दुःख छे. ए ज प्रमाणे
निर्धनता ते दुःख नथी, ने सधनता ते सुख नथी. निर्धनपणुं ते कांई अवगुण नथी. शरीरमां रोग थाय ते दुःख नथी,
ने शरीरनी नीरोगता ते सुख नथी. स्त्री–पुत्रादिनो वियोग थाय ते दुःख नथी, ने तेना संयोगमां सुख नथी. लोकोए
बाह्य संयोगथी सुख–दुःखनी कल्पना करी छे, ते भ्रांति छे. अने ए भ्रांतिथी ज जीवने दुःख छे. ए भ्रांति जीवे पोते
अज्ञानभावे ऊभी करी छे, तेथी तेनुं दुःख मटाडवा बीजो कोई समर्थ नथी. जीव पोते सत्समागमे साची समजाण
प्रगट करीने ते भ्रांति टाळे तो ज तेनुं दुःख मटे. आ प्रमाणे, हुं कोई बीजानुं दुःख दूर न करी शकुं अने कोई बीजो मारुं
दुःख दूर न करी शके एम समजे तो पोतामां स्वभावनुं शरण लईने सुख–शांति प्रगट करे. पण, हुं परनां दुःख टाळुं ने
पर मारां दुःख टाळे–एम जे माने तेने पर सामे ज जोया करवानुं रह्युं, परथी खसीने पोताना स्वभाव तरफ
आववानो अवकाश रह्यो नहि. पर साथेनी एकत्वबुद्धि ते संसारनुं मूळ छे. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
उपजे मोह विकल्पथी समस्त आ संसार, अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.
आत्माने भूलीने परमां अने विकारमां एकत्वबुद्धि ते दुःख छे, ते ज संसारनुं मूळ छे. अने परथी भिन्न तेम
ज विकाररहित अंतर्मुख चैतन्यस्वभावना भानवडे आत्मामां अपूर्व सुख प्रगटे छे. कोई संयोगमां आत्मानुं सुख के
दुःख नथी. मिथ्यात्वरूप मोहथी परमां सुख–दुःखनी कल्पना करे छे ते मोह ज आ संसारनुं मूळ छे. अंर्तस्वभाव
तरफ वळतां क्षणमात्रमां ते मोहनो नाश थईने अल्पकाळे मुक्तदशा प्रगटे छे. अंर्तस्वभावना भान विना कदी मुक्ति
थाय तेम नथी.
आ जड शरीर, स्त्री, पैसा, मकान, वस्त्र वगेरेमां आत्मानो संसार नथी. पण ‘आ मारुं, आ मने ईष्ट छे, आ
मने अनिष्ट छे’ –आवा जे मोहना विकल्प जीव करे छे ते ज संसार छे. जीवनो संसार जीवथी जुदो न होय. संसार
क्यां रहेतो हशे? जीवनो संसार क्यांय बहारमां नथी रहेतो, पण जीवनी अरूपी विकारी अवस्था ते ज संसार छे,
अने मरतां ते विकारीभावरूप संसारने साथे लई जाय छे, शरीर वगेरे तो अहीं पड्यां रहे छे. जो शरीर, स्त्री
वगेरेमां जीवनो संसार होय तो, मरतां ते बधुं छूटी जाय छे तेथी जीवनो संसार छूटीने तेनी मुक्ति थवी जोईए!
परमां संसार नथी, पण मिथ्याभ्रांतिनो भाव जीवनी अवस्थामां थाय छे तेने भगवान मुख्यपणे संसार कहे छे.
आथी एम न समजवुं के जगतमां बीजा पदार्थो ज नथी. जगतमां शरीरादि जड पदार्थो छे खरा, ते कांई भ्रम नथी.
परंतु ते परपदार्थथी जीवने सुख–दुःख मानवुं ते भ्रम छे. जीवना मोह अने विकल्पथी ज संसार ऊपजे छे, अने
अंर्तस्वभावनी तरफ वळतां संसार टळे छे.
नजीकमां नजीक रहेला आ देहने पण सुधारवानी ताकात आत्मामां नथी, तो पछी ते बीजा जीवोनुं के देश
वगेरेनुं शुं करी शके? कोने मरवानी ईच्छा छे? कोने शरीरमां रोग लाववानी ईच्छा छे? कोने काळामांथी सफेदवाळ
करवानी ईच्छा छे? जीवनी ईच्छा न होवा छतां ते बधुं थाय छे. शरीर उपर पण जीवनी सत्ता नथी चालती, छतां
दूरना पदार्थोनां काम हुं करी दउं एम जीव माने छे ते मोटुं पाखंड अने अधर्म छे. अंतरमां परनुं हुं करुं एम माने
अने बहारमां लक्ष्मी–वस्त्र वगेरे छूटी जाय तेथी कांई संसार छूटी जतो नथी, केमके संसार बहारना पदार्थोमां नथी
पण ऊंधी मान्यतामां छे. अंर्तस्वभावनी द्रष्टिथी मोह अने विकल्पनो नाश थतां संसार टळी जाय छे.
– पद्म. एकत्व अधिकार गा. २६ मागसर वद १३ चूडा शहेरमां पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.
• मोक्ष अने बंधनु कारण •
साधक जीवने ज्यांसुधी रत्नत्रयभावनी पूर्णता नथी थती त्यांसुधी तेने जे कर्मनुं बंधन थाय छे तेमां
रत्नत्रयनो दोष नथी. रत्नत्रय तो मोक्षना ज साधक छे, ते बंधना कारण थतां नथी. परंतु ते वखते रत्नत्रयभावनो
विरोधी एवो जे रागांश होय छे ते ज बंधनुं कारण छे.
जीवने जेटला अंशे सम्यग्दर्शन छे तेटला अंशे बंधन थतुं नथी, पण तेनी साथे जेटला अंशे राग छे ते
रागांशथी तेटला अंशे बंधन थाय छे.
(पुरुषार्थसिद्धि उपाय गा. २१२, २१५)