जीवने सत्समागमे चैतन्यनी अपूर्व प्रतीति थई त्यां मुक्तिनी निःशंकता थई, तेमां ‘मारी मुक्ति थशे के नहि’ एम
भगवानने पूछवुं न पडे. जेने पोतानी परिणति स्वभाव तरफ कार्य करी रही होय, पुरुषार्थ स्वभाव तरफ ढळतो
होय, रुचि अने ज्ञान क्षणे क्षणे स्वभाव तरफनुं कार्य करतां होय, तेने पोताने तेनी खबर न पडे ए केम बने? अने
तेने भवनी शंका न टळे–एम केम बने? जेम बंधनमां बंधायेला कोई पुरुषे बळ करीने बंधनना अमुक बंधन छोडी
नांख्या, अमुक ढीला कर्या अने अमुक छूटवानी तैयारीमां होय, त्यां ते पुरुषने ‘हुं छूटीश के नहि’ एवी शंका रहेती
नथी. तेम धर्मी जीवने पोतानो आत्मा दर्शनमां छूटो मनायो, ज्ञानमां शुद्ध जणायो, चारित्रमां अल्प शुद्धता प्रगटी,
अने बाकीनां अल्प राग–द्वेष रह्यां छे तेने पण स्वभावना आश्रयना जोरे अल्पकाळमां टाळीने मुक्त थवानो छे; एने
बंधननी शंका केम होय? हुं मुक्तस्वरूप नथी पण हुं बंधायेलो छुं–एवी जेनी मति छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. धर्मी जीव
अवस्थाना क्षणिक बंधनने जाणतो होवा छतां तेने गौण करीने स्वभावनी मुख्यताना जोरे कहे छे के हुं मुक्तस्वरूप
छुं–एवी मारी बुद्धि थई छे. –आनुं नाम धर्म छे, आ अमृतमार्ग छे, आ मुक्तिना राह छे.
अने घास भेगां खाय छे, तेम पशु जेवो अज्ञानी जीव अविवेकपणे आत्माना निर्दोष स्वभावने अने विकारने
एकपणे अनुभवे छे, एटले वर्तमानमां ज पोतानो आत्मा मुक्तस्वरूपे तेने अनुभवमां आवतो नथी. धर्मी जीव
अंतरनी द्रष्टिना विवेक द्वारा आत्माना स्वभावने अने विकारभावोने जुदा अनुभवे छे, एटले अवस्थामां विकार
विद्यमान होवा छतां वर्तमानमां ज पोताना आत्माने मुक्तस्वरूपे तेओ जाणे छे. दरेक मोक्षार्थी जीवोए पहेलांं पोताना
आवा स्वभावनुं भान करवुं जोईए. आत्मा तो जागृत चैतन्यसत्ता छे, ते स्व–परने जाणे छे. परने अने पुण्य–पापने
पण तेमां भळ्या वगर जाणे छे–एवो स्वभाव छे. पोताना स्वभावमां अभेद थईने स्वने जाणे छे, ने पुण्य–पापमां
एकमेक थया वगर तेने जाणे छे. पुण्य–पापने जाणतां जो ज्ञान तेमां एकमेक थई जाय तो ते ज्ञान पुण्य–पापने
खरेखर जाणी शके नहि. धर्मी जीवने नीचली दशामां राग–द्वेष थाय छे तथा स्वरूपनी स्थिरता करवानी बाकी होवा
छतां, श्रद्धामां तेने पोताना रागद्वेष रहित मुक्तस्वभावनी प्रतीति छे, तेथी तेना आश्रये अल्पकाळे पूर्ण स्थिरता
प्रगट करीने ते मुक्त थाय छे.
हुं परमां फेरफार करी शकुं–एम अज्ञानी जीव माने छे. पण हे भाई! तारी ईच्छा प्रमाणे शरीरमां पण फेरफार
छतां रोग केम मटतो नथी? परमां किंचित् फेरफार करी शके एवी आत्मानी ताकात ज नथी. आत्मा ईच्छा करे, ते
ईच्छानी मर्यादा तो फक्त आकुळता थाय तेटली ज छे. शुभाशुभ ईच्छाओ तो नवी नवी थाय छे, ने बीजी क्षणे ते
पलटी जाय छे; ते ईच्छाओ आत्मानो स्वभाव नथी. ते ईच्छारहित आत्मस्वभावनुं भान करीने पछी ते ईच्छा टळी
जतां आत्मानी परमानंदमय सर्वज्ञ मुक्तदशा प्रगट थाय छे. ते सर्वज्ञदशा प्रगट्या पछी तीर्थंकर भगवानने “ एवो
अभेदध्वनि नीकळे छे, अने ते ध्वनिमां आत्मस्वभावनुं पूरुं रहस्य एक साथे आवे छे. साधारण रागी जीवोनी वाणी
भेदवाळी होय छे. भगवानने ज्ञायकस्वभाव अखंड प्रगट्यो तेथी वाणी पण अभेद नीकळे छे. ते वाणीमां शुं कह्युं?
तेनी वात चाले छे.
गयो, पण आत्मानो निर्मळ ज्ञानस्वभाव छे ते मिथ्यात्वस्वरूपे थई गयो नथी. मिथ्यात्वभाव थाय छे तो आत्मानी
ज अवस्थामां अने आत्माना ज अपराधथी, परंतु आत्मानो स्वभाव ज जो ते मिथ्यात्वस्वरूपे थई गयो होय तो
स्वभावनुं भान करीने ते मिथ्यात्व कदी टळी शके नहि. जेम शरीरमां रोग थाय ते शरीरनुं खरुं स्वरूप नथी, तेम
मिथ्यात्व अने रागद्वेषभावो आत्मानो स्वभाव नथी पण अनादिनो रोग छे–विकार छे, तेथी ते टळी शके छे. कई रीते
ते रोग मटे? ते कहेवाय छे.