Atmadharma magazine - Ank 079
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १३६ : आत्मधर्म : वैशाख : २००६ :
धर्मी जीव जाणे छे के – ‘हुं मुक्त छुं’
आत्मानो स्वभाव शुं छे ते जगतना जीवोए अनंतकाळथी जाण्यो नथी, तेथी दुर्लभ लागे छे. जेम अजाण्या
खेडूतने शहेरनी कोर्टना पगथियां चडतां बीक लागे छे, तेम अनादिथी चैतन्यमूर्ति आत्माना स्वभावने जाण्यो नथी
तेथी तेनी यथार्थ वात सांभळतां ते समजवी कठण लागे छे. जो पात्र थईने परिचय करे तो आ वात समजाय तेवी
छे. पोताना आत्माने केवा स्वरूपे ओळखवाथी धर्म थाय तेनी आ वात चाले छे.
आत्मा त्रिकाळी वस्तु छे, तेमां बे पडखां छे. एक त्रिकाळी स्वभाव, अने बीजुं वर्तमान पूरती अवस्था.
आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव रागद्वेषरहित, निर्मळानंदस्वरूप छे, तेमां बंधन नथी. अने तेनी वर्तमान हालतमां राग–
द्वेष वगेरे विकारभावो छे. त्यां विकार ते ज हुं एम मानीने विकारबुद्धिथी जीव संसारमां रखडे छे. धर्मी जीवनी द्रष्टि
एम छे के हुं ज्ञानस्वभावी मुक्त छुं, राग–द्वेष थाय ते मारा स्वभावमां नथी. जेम स्फटिकमणि स्वभावथी तो
उज्जवळ छे, काळा–राता पदार्थोना संयोगे जे रंगनी झांई देखाय छे ते तेनो स्वभाव नथी, पण विभाव छे. तेम मारो
आत्मा त्रिकाळी चैतन्यमूर्ति, पुण्य–पाप राग–द्वेष रहित मुक्तस्वरूपी छे; अवस्थामां पर तरफना वलणथी जे राग–द्वेष
थाय छे ते मारुं स्वरूप नथी, पण क्षणिक विकार छे. ते क्षणिक विकार जेटलो हुं नथी. स्वभावपणे हुं मुक्त छुं–एवी
मारी मति छे. हुं रागी–द्वेषी छुं एवी मारी मति नथी पण हुं मुक्त छुं एवी मारी मति छे. एटले के मारुं ज्ञान
विकारसन्मुख नथी पण स्वभावसन्मुख छे. पुण्य–पापनी लागणीओ थाय ते मारा मूळ स्वरूपमांथी आवती नथी.
आ प्रमाणे विकारनी रुचि टळीने स्वभावमां जेनी द्रष्टि पडी छे ते ज सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा छे; आवी द्रष्टि थया वगर
बीजुं गमे तेटलुं करे तोपण जराय धर्म थतो नथी.
सम्यग्द्रष्टि कहे छे के हुं परथी भिन्न छुं ने स्वभावथी एक छुं एटले हुं मुक्तस्वरूप छुं–एवी मारी मति थई छे.
भगवान कहे छे माटे हुं आत्माने मुक्तस्वरूप मानुं छुं–एम नहि, पण मारी मति ज एवी थई छे. –आ प्रमाणे
स्वाश्रयथी स्वभावनी कबूलात छे. पोताने पोतानी खबर न पडे–एवी वात लीधी नथी. धर्मी पोते पोतानी
निःशंकताथी कहे छे के स्वभावनी द्रष्टिए हुं मुक्त छुं एवी मारी मति थई छे. पोताने निःशंकता थई छे, तेमां कोई
बीजाने पूछवुं पडतुं नथी. हजी पर्यायमां मुक्ति थई नथी छतां धर्मी कहे छे के हुं मुक्त छुं. पर्यायमां अधूराश अने
रागद्वेष छे तेनो ज्ञानमां ख्याल वर्ते छे, पण पर्यायमां रागद्वेष थवा छतां हुं तेनो आश्रय नथी करतो, हुं त्रिकाळी
स्वभावनो ज आश्रय करुं छुं. ए प्रमाणे स्वभावना आश्रये धर्मी कहे छे के हुं मुक्त छुं. अंतरमां आवा आत्मानुं ज्ञान
करवुं ते ज मुक्त थवानो रस्तो छे. अंतरमां जे मुक्तस्वरूपनी हा पाडे तेने तेमांथी मुक्तदशा प्रगटशे. पण
मुक्तस्वरूपनी जे ना पाडे छे तेने मुक्तदशा आवशे क्यांथी?
ज्ञानस्वभावी आत्मा खरेखर बंधायेलो नथी. एक हीरानो हार डाभलामां होय ने डाभलो पटारामां पड्यो
होय. पण ज्ञानमां तो ते हार नजरे तरवरे छे, एटले आत्मानुं ज्ञान बंधायुं नथी. पुण्य–पापना भाव थाय तेने
जाणनारुं ज्ञान पोते पुण्य–पापथी बंधायुं नथी पण ज्ञान तो पुण्य–पापथी मुक्त ज छे. आम पुण्य–पाप रहित मुक्त
ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करवी जोईए. जेम माल लेती वखते भाव अने तोल नक्की करे छे तेम आ चैतन्यने समजवा
माटे ज्ञानद्वारा नयप्रमाणथी तेनुं बराबर माप करवुं जोईए, बधा पडखांथी निर्णय करवो जोईए. जो माप करनारुं
ज्ञान ज खोटुं होय तो वस्तुनुं माप साचुं आवे नहि. तोला अने कांटो ज फेरवाळा होय त्यां साचुं माप क्यांथी आवे?
एम साचा ज्ञान वगर जगत धर्म करवा मागे ते धर्म क्यांथी थाय? अहो! अत्यारे तो चैतन्यस्वभावनुं माप करनारा
जगतना कांटा ज खादीला थई गया छे. आत्मा परनुं करे अने आत्मा परने छोडे एवी रीते आत्मानुं माप करे छे, ते
मिथ्याज्ञान छे, तेमां आत्मानुं साचुं माप क्यांथी आवे? बाह्य त्यागथी के पुण्यथी धर्मनुं माप नथी पण अंर्तद्रष्टिथी
ज धर्मनुं माप छे. धर्मी जीव पोताना यथार्थ ज्ञानथी आत्माने केवो जाणे छे? ते अहीं कहे छे.
सम्यग्द्रष्टिने सम्यक् मतिज्ञान थतां चैतन्यमां आवी प्रतीत थाय छे के अहो! हुं मुक्त छुं; मारा ज्ञानस्वरूपमां
कर्मनुं के विकारनुं बंधन नथी. आम पोताना मुक्तस्वभावनी प्रतीत होवाथी तेने भवनी शंका पण नथी, केमके
स्वभावमां भव नथी. भवनुं कारण विकार छे, ते विकार आत्माना स्वभावमां नथी तेथी स्वभावद्रष्टिमां धर्मीने
भवनी शंका होती ज नथी. आमां केवळी भगवानने पूछवा जवुं पडतुं नथी, पण ज्यां पोतानी ज्ञानपरिणति स्वभाव
तरफ वळी अने मुक्तस्वभावनो स्वीकार कर्यो त्यां निःशंकपणे खबर पडे छे के हवे अल्पकाळे आ स्वभावना आश्रये
मुक्तदशा प्रगटवानी छे. तृषा लागी होय