Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
चैतन्यनो निर्मळ विपाक थाय छे.
अहीं कर्मने निशाचर कह्या छे. निशाचर एटले रात्रिना अंधकारमां फरनारा चोर तो रात्रिना
अंधकारमां नुकसान करे, प्रकाशमां चोरनुं जोर चाले नहीं. तेम शुभाशुभ कर्मो निशाचर छे एटले के ज्यां मिथ्या
त्वरूपी अंधकार होय त्यां तेओ निमित्तपणे नुकसान करे एम कहेवाय; पण मारा आत्मामां तो मिथ्यात्व
अंधकार टळीने चैतन्यप्रकाश प्रगट्यो छे, तो ते पूर्व–कर्मरूपी रात्रिना चोरो मने कांई नुकसान करवा समर्थ
नथी. त्याग के चारित्रदशा थया पहेलांं सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी आ वात चाले छे. गृहस्थपणामां रहेला
धर्मीने पण आवी द्रष्टि अंतरमां होय छे.
अहो, चिदानंद प्रभु! तुं ज्ञाताद्रष्टा, जगतनो साक्षी. पुण्य–पापनी लागणीओ पण तारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे.
पुण्य–पापनी लागणीओ तारा ज्ञानस्वभाव साथे एकाकार थती नथी. आवा तारा ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि
करीने तुं जाग्यो, त्यां पूर्व प्रारब्धरूपी चोर तने शुं करशे? तारा आत्मामां अज्ञानरूपी रात्री टळीने ज्ञान–प्रकाश
खील्यो छे, तो हवे रात्रिमां फरनारा शुभाशुभ कर्मरूपी निशाचर तने शुं करशे? अहीं एम समजवुं के धर्मी
जीवना वलणनी मुख्यता कर्मना उदय तरफ नथी पण पोताना स्वभाव तरफ ज छे; तेथी खरेखर तेने पूर्व
कर्मनुं फळ आवतुं नथी पण क्षणे क्षणे स्वभाव ज फळे छे. जगतनी कोई चीजमां मारे कांई फेरफार करवानो
नथी, हुं तो ज्ञाता मुक्त छुं. –आम ज्यां सम्यग्द्रष्टि जाग्यो त्यां ते कहे छे के प्रारब्ध मने शुं करशे? पूर्वना
प्रारब्ध बाह्य संयोग भले आपे, पण संयोगमां ईष्ट–अनिष्टपणानी बुद्धि मने टळी गई छे. मारा
ज्ञायकस्वभावमां जगतनी बधी चीजो तो एक ज्ञेय तरीके ज छे. साक्षात् अरिहंत भगवान हो, के छरो लईने
माथुं कापनार हो–बंने मारा ज्ञानना ज्ञेयो ज छे अरिहंत भगवान ईष्ट अने माथुं कापनार अनिष्ट–एवा बे
प्रकार मारा ज्ञानस्वभावमां नथी. अहीं मारो ज्ञायक स्वभाव एक अखंड छे, तेमां राग–द्वेष नथी, तेम सामे
बधा ज्ञेयो पण एक ज प्रकारे छे, आ ईष्ट अने आ अनिष्ट–एवुं तेमां नथी. आ रीते ज्ञानीने संयोगमां ईष्ट–
अनिष्टपणानी बुद्धि होती नथी. जे पदार्थ जेम होय तेम तेने जाणी लेवानो ज्ञाननो स्वभाव छे. जगतना
पदार्थोमां ईष्ट–अनिष्टपणुं नथी, ने ज्ञानना स्वभावमां पण ईष्ट–अनिष्टपणानी कल्पना नथी. एक प्रकारनो
(–रागद्वेष रहित) ज्ञातास्वभाव छे, तेने बदले परमां ईष्ट–अनिष्टपणानी कल्पना करीने बे भाग पाडे ते
मिथ्याद्रष्टि छे. धर्मी तो जाणे छे के जगतना कोई संयोगो मने ईष्ट–अनिष्ट नथी, हुं तो असंयोगी, रागद्वेष
रहित ज्ञायक मुक्तस्वरूप छुं,–आवी स्वभावद्रष्टिमां पूर्वकर्मरूपी चोर मने कांई करवा समर्थ नथी.
–पद्म० एकत्व अधिकार गा. २८ मागसर वद ०ाा
चूडा शहेरमां पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.
कोण प्रशंसनीय छे?
आ जगतमां जे आत्मा निर्मळ सम्यग्दर्शनमां पोतानी बुद्धि निश्चळ राखे छे ते,
कदाचित् पूर्वना पापकर्मना उदयथी दुःखित पण होय अने एकलो पण होय तोपण,
खरेखर प्रशंसनीय होय छे. अने एथी ऊलटुं, जे जीव अत्यंत आनंदने देनार एवा
सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयथी बाह्य छे अने मिथ्यामार्गमां स्थित छे एवा मिथ्याद्रष्टि मनुष्यो
भले घणा होय अने वर्तमानमां शुभ कर्मना उदयथी प्रसन्न होय तोपण तेओ प्रशंसनीय
नथी. माटे भव्यजीवोए सम्यग्दर्शन धारण करवानो निरंतर प्रयत्न करवो जोईए.
पद्मनंदी–देशव्रतोद्योतन अधिकार–२
मुद्रक:– चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय: मोटा आंकडिया: सौराष्ट्र ता. ८–५–५०
प्रकाशक:– श्री जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया: सौराष्ट्र.