Atmadharma magazine - Ank 081a
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 20 of 21

background image
: द्वितीय अषाढ: २४७६ आत्मधर्म : १९९:
चीजो जती करीने छेवटे आ शरीरने पण जतुं करीने सुख लेवा मांगे छे. शरीर जतां तो एकलो आत्मा रहे छे.
एटले एकला आत्मामां जो सुख न होय तो शरीर दूर करीने पण सुख लेवा मांगे नहीं. एटले शरीरमां के
कोई संयोगमां सुख नथी पण आत्मामां ज सुख छे, –पण अज्ञानीने पोताना स्वभावमां सुख छे तेनो विश्वास
बेसतो नथी, एटले बहारमां तेना उपाय शोधे छे. जो पोतामां ज सुखनुं अस्तित्व न होय तो बहारमां तेनो
आरोप करीने शोधे नहि. जेणे परमां अज्ञानभावे सुखनो आरोप कर्यो छे तेना पोतामां अनारोप–वास्तविक
सुख भर्युं छे. पण भान नथी के सुख क्यां छे? कदी ऊंडो विचार पण कर्यो नथी. अपमान थतां गळे फांसो
खाईने प्राण छोडे छे. जुओ, त्यां अपमानना दुःख पासे प्राण छूटी जाय ते हळवुं लागे छे. पहेलांं शरीरनो एक
रूंवाटो खेंचाय त्यां पण दुःख मानतो, तेने बदले हवे अपमानमां दुःखनी कल्पना थई गई छे तेथी शरीर जतुं
करीने पण ते दुःखथी छूटवा मांगे छे. ए प्रमाणे संयोगथी छूटीने सुखी थवा मांगे छे पण क्यां जईने लक्षने
थंभाववुं तेनुं तेने भान नथी. संयोगथी छूटीने सुख लेवा मांगे छे तेनो अर्थ ए थयो के संयोग वगर एकला
आत्मामां रहीने सुखी थवाय छे. संयोग वगर एकला आत्मामां सुखनी सत्ता छे. एटले जो चैतन्यस्वभावने
ओळखीने तेना लक्षे एकाग्रता पूर्वक शरीरादि संयोगनुं ममत्व छोडे तो आत्मामां यथार्थ सुख थाय.
चैतन्यस्वभावना लक्ष वगर, मात्र बाह्य संयोगोथी छूटीने सुखी थवा मांगे तो ते सुखनो उपाय नथी. केम के
संयोगने लीधे आत्माने दुःख नथी तेथी संयोग छूटे तो दुःख छूटे–एम नथी. संयोगथी पार चैतन्यस्वभावनुं
भान करीने जेटली एकाग्रता प्रगट करे तेटलुं सुख प्रगटे छे. आ ज सुखनो उपाय छे.
–वीर सं. २४७६ ना पोष सुद १ ना रोज चूडा शहेरमां पद्म. एकत्व अधिकार
गाथा २९ उपर पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.
गया मासनो ‘आत्मधर्म’ नो अंक अधिक मासनो होवाथी वधारानो हतो, छतां तेने भूलथी ८१मो नंबर
अपाई गयो छे; तेथी आ द्वितीय अषाड मासना अंकने ८१मा अंकने बदले “खास अंक” तरीके प्रसिद्ध कर्यो छे.
– : सुख : –
दरेक जीवने सुख प्रिय छे, ए विषे तो कोईने पूछवा जवुं पडे तेम नथी. दरेक कार्यमां सुखने माटे ज
झांवा नांखे छे. स्वर्गना देव के नरकना नारकी, तिर्यंच के मनुष्य, त्यागी साधु के गृहस्थ वगेरे बधा सुखने माटे
ज झंखना करे छे; ए सुख केम थाय? शुं ए सुख बहार पैसा वगेरेमांथी आवतुं हशे? तो कहे छे के–ना; ते
सुख राग–द्वेषरूप भावकर्मनो नाश करतां प्रगटे छे. भावकर्मनो नाश करतां आठे प्रकारना द्रव्यकर्मनो नाश थाय
छे, अने सर्वकर्मनो नाश थतां स्वतंत्र सुख प्रगटे छे.
सुख बहारथी आवतुं नथी, पण अंदरथी ज प्रगटे छे. बहारमां क्यां सुख छे? शुं शरीरना लोचामां
सुख छे, पैसामां छे, स्त्रीमां छे, क्यां छे? बहारमां तो धूळ–जड देखाय छे, शुं जडमां आत्मानुं सुख होय? न ज
होय. पण ते परवस्तुओमां सुखनी खोटी कल्पना अज्ञानी जीवे करी छे; परमां सुख छे नहीं, कदी परमां सुख
जोयुं पण नथी, छतां मूढताए कल्प्युं छे. अयथार्थने यथार्थ माने तेथी कांई परिभ्रमणनुं दुःख टळे नहि.
सुखस्वभावनी खबर नथी तेथी स्वभावथी विरुद्ध भाव करी रह्यो छे, अने तेनां कारणे आठ प्रकारनां कर्मो
बंधाय छे तेथी आकुळतानो भोगवटो करे छे, पण जो स्वभावनुं भान करे अने स्वभावथी विरुद्ध जे राग–
द्वेषना भाव तेनो नाश करे तो सर्व कर्मो टळी जाय अने दुःख टळीने सुख थाय. जे परमांथी सुख लेवा मागे छे
ते मूढ छे.
जेनो जे स्वभाव होय तेने जेम छे तेम, ते रीते समजे तो ते प्रगटे. जेम कोईने भावनगर जवुं होय तो
भावनगरनो रस्तो जाणवो पडे, पण ‘रस्तो जाणवानुं शुं काम छे, एम ने एम चालवा मांडो’ –एम
भावनगर पहोंचाय नहि. –आ तो द्रष्टांत छे. तेम सुखनो उपाय जाणे तो सुख प्रगटे, पण साचो उपाय जाण्या
विना खोटा जोरथी सुख प्रगटे नहीं.
“मुक्तिनो मार्ग” मांथी–पृ. ३–४