एटले एकला आत्मामां जो सुख न होय तो शरीर दूर करीने पण सुख लेवा मांगे नहीं. एटले शरीरमां के
कोई संयोगमां सुख नथी पण आत्मामां ज सुख छे, –पण अज्ञानीने पोताना स्वभावमां सुख छे तेनो विश्वास
बेसतो नथी, एटले बहारमां तेना उपाय शोधे छे. जो पोतामां ज सुखनुं अस्तित्व न होय तो बहारमां तेनो
आरोप करीने शोधे नहि. जेणे परमां अज्ञानभावे सुखनो आरोप कर्यो छे तेना पोतामां अनारोप–वास्तविक
खाईने प्राण छोडे छे. जुओ, त्यां अपमानना दुःख पासे प्राण छूटी जाय ते हळवुं लागे छे. पहेलांं शरीरनो एक
रूंवाटो खेंचाय त्यां पण दुःख मानतो, तेने बदले हवे अपमानमां दुःखनी कल्पना थई गई छे तेथी शरीर जतुं
करीने पण ते दुःखथी छूटवा मांगे छे. ए प्रमाणे संयोगथी छूटीने सुखी थवा मांगे छे पण क्यां जईने लक्षने
थंभाववुं तेनुं तेने भान नथी. संयोगथी छूटीने सुख लेवा मांगे छे तेनो अर्थ ए थयो के संयोग वगर एकला
आत्मामां रहीने सुखी थवाय छे. संयोग वगर एकला आत्मामां सुखनी सत्ता छे. एटले जो चैतन्यस्वभावने
ओळखीने तेना लक्षे एकाग्रता पूर्वक शरीरादि संयोगनुं ममत्व छोडे तो आत्मामां यथार्थ सुख थाय.
चैतन्यस्वभावना लक्ष वगर, मात्र बाह्य संयोगोथी छूटीने सुखी थवा मांगे तो ते सुखनो उपाय नथी. केम के
संयोगने लीधे आत्माने दुःख नथी तेथी संयोग छूटे तो दुःख छूटे–एम नथी. संयोगथी पार चैतन्यस्वभावनुं
भान करीने जेटली एकाग्रता प्रगट करे तेटलुं सुख प्रगटे छे. आ ज सुखनो उपाय छे.
ज झंखना करे छे; ए सुख केम थाय? शुं ए सुख बहार पैसा वगेरेमांथी आवतुं हशे? तो कहे छे के–ना; ते
सुख राग–द्वेषरूप भावकर्मनो नाश करतां प्रगटे छे. भावकर्मनो नाश करतां आठे प्रकारना द्रव्यकर्मनो नाश थाय
होय. पण ते परवस्तुओमां सुखनी खोटी कल्पना अज्ञानी जीवे करी छे; परमां सुख छे नहीं, कदी परमां सुख
जोयुं पण नथी, छतां मूढताए कल्प्युं छे. अयथार्थने यथार्थ माने तेथी कांई परिभ्रमणनुं दुःख टळे नहि.
सुखस्वभावनी खबर नथी तेथी स्वभावथी विरुद्ध भाव करी रह्यो छे, अने तेनां कारणे आठ प्रकारनां कर्मो
बंधाय छे तेथी आकुळतानो भोगवटो करे छे, पण जो स्वभावनुं भान करे अने स्वभावथी विरुद्ध जे राग–
द्वेषना भाव तेनो नाश करे तो सर्व कर्मो टळी जाय अने दुःख टळीने सुख थाय. जे परमांथी सुख लेवा मागे छे
ते मूढ छे.
विना खोटा जोरथी सुख प्रगटे नहीं.