: २१८ : आत्मधर्म–८२ : श्रावण : २००६ :
[१७५] पोतानो आत्मा ज नमन, स्तुति ने ध्यान करवा योग्य छे
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव मोक्षप्राभृतमां कहे छे के–
णमिएहिं जं णमिज्जइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं।
थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह।। १०३।।
नमस्कार करवा योग्य एवा मुनिराज वगेरे संत पुरुषो द्वारा पण जे नमस्कार करवा योग्य छे, अने
स्तुति करवा योग्य एवा सत्पुरुषो द्वारा पण जेनी स्तुति करवामां आवी छे, तथा ध्यान करवा योग्य
आचार्यादिक वडे पण जे ध्यान करवा योग्य छे–एवो आ भगवान आत्मा देहमां वसे छे, तेने तुं परमात्मा
जाण अने तेने ज नमन कर, तेनी ज स्तुति कर तथा तेनुं ज ध्यान कर.
आमां निश्चय व्यवहार बंने आवी जाय छे. त्रिकाळ मुक्तस्वरूप आत्मा ते निश्चय छे, अने तेना
आश्रये जे निश्चयमोक्षमार्गरूप शुद्धदशा प्रगटी ते व्यवहार छे.
आ चैतन्यचमत्कार भगवान आत्मा छे, तेने गणधरो पण नमस्कार करे छे. श्री गणधरदेव जगतना
जीवोथी वंद्य छे, अने ए गणधरदेव पण पोताना चैतन्यचमत्कार आत्माने ज नमे छे,–त्रिकाळी
आत्मस्वभावमां ज परिणमे छे. पोताना अंर्तस्वरूपमां परिणमवुं ते ज साचा नमस्कार छे. आ ज मुक्तिनो
क्रम छे. त्रिकाळी शुद्ध स्वरूप ते अक्रम छे अने तेनो आश्रय करतां जे निर्मळदशा प्रगटी ते क्रम छे.
आ चैतन्यस्वरूप आत्मा पोताना स्वभावे सत् छे, तेनी अपेक्षाए लोकालोक असत् छे. लोकालोकमां
तो लोकालोक छे, पण आत्मामां तेनो अभाव छे. चैतन्यना होवापणाने लीधे कांई जगतना छ द्रव्योनुं
होवापणुं नथी. एम परथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि करीने तेमां ज परिणमवुं योग्य छे.
स्तुति करवा योग्य जे गणधरादिक संत पुरुषो छे ते संतोए पण एक चैतन्यनी ज स्तुति करी छे.
परमार्थे पोतानो त्रिकाळ मुक्तस्वभाव ज भजवा योग्य छे. बाह्य वृत्तिने टाळीने भगवान आत्मामां ज ढळवुं
ते ज साची स्तुति छे. ध्यान करवा योग्य आचार्य, उपाध्याय ने साधुओ पण आ चैतन्यस्वरूपनुं ज ध्यान करे
छे. स्वसंपत्तिना संपूर्ण सामर्थ्यवाळो अने परना अभाव स्वरूप चैतन्यचमत्कार चिंतामणि ज ध्यान करवा
योग्य छे.
[१७६] क्षमावणी
उपर कह्या प्रमाणे पोताना शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी ओळखाण अने ध्यान करवां ते ज उत्तम क्षमा छे.
चैतन्यने विकारी मानीने अनादिथी तेना उपर क्रोध कर्यो हतो अने तेनो अपराध कर्यो हतो. हवे
चैतन्यभगवान पासे एम क्षमा मांगो के हे चैतन्य प्रभु! तुं त्रिकाळ पवित्र ज्ञायकमूर्ति छे, तारा स्वरूपमां कदी
विकार नथी; संसार टाळुं ने मोक्षदशा प्रगट करुं–एवा बे भेद पण तारामां नथी. चैतन्यचिंतामणि एवा तने
विकल्पनो आश्रय मान्यो हतो ते मारा महान दोषनी क्षमा करजे. अनादिथी चैतन्यतत्त्वने विकाररूपे मानीने
चैतन्यप्रभुनो अनादर कर्यो ते अनंत क्रोध छे. हवे शुद्ध चैतन्यतत्त्वना परम आदर वडे ते मान्यता टाळवी ते ज
पोताना अपराधनी क्षमा छे. जेणे दोष र्क्यो ते ज पोते पोताने क्षमा करे छे. [अपूर्ण]
तमे वांच्युं?
जेमां जैनधर्मना ऊंडा ऊंडा आध्यात्मिक रहस्यने सचोटपणे विस्तारपूर्वक समजाववामां आव्या छे, पू.
गुरुदेवश्री जेने “जैन–गीता” नुं उपनाम आपे छे, जेना स्वाध्यायथी अनेक अनेक जिज्ञासुओ उल्लास सहित
अत्यंत आश्चर्यनिमग्न थई गया छे, अने हरेक जिज्ञासु पाठकोने जे विनामूल्य भेट तरीके मोकलवामां आवे छे–
ते “वस्तुविज्ञानसार” तमे वांच्युं के नहि? आज सुधी हजारो–हजारो जिज्ञासुओए तेनो लाभ लीधो छे. हजी
सुधी तमे न वांच्युं होय तो तुरत मंगावीने जिज्ञासाभावे तेनो अवश्य स्वाध्याय करो. श्रीसर्वज्ञदेवनी खरी
श्रद्धा क्यारे थई कहेवाय? ते तेमां विशिष्ट रीते समजाव्युं छे, ते समज्या विना सर्वज्ञदेवनी खरी श्रद्धा थती
नथी. आ पुस्तक हिंदी तेम ज गुजराती बंने भाषामां छपायुं छे.
पुस्तक मंगावानुं सरनामुं : – श्री जैन स्वाध्यायमंदिर सोनगढ (सौराष्ट्र)