निर्मळ अवस्था प्रगटे छे. पोते ज्ञानादि शक्तिनो पिंड छे तेनी सन्मुख वळतां शुद्धदशा प्रगटे छे. चिंतामणि
चैतन्यचमत्कार शुद्ध ज्ञानादिनो ज आधार छे, तेनी पासेथी ज्ञान सिवाय बीजुं कांई मंगाय नहि. रागनी
महत्ता नथी पण चैतन्यनी ज महत्ता छे. चैतन्य–चिंतामणिने चिंतवतां केवळज्ञान प्रगटे छे, एवो तेनो
चमत्कार छे.
परनी जरूर पडे एम अनादिकाळथी मिथ्या मान्यता करी रह्यो छे, तेथी मात्र विकारी भाव वगर पर्यायमां
अनादिकाळथी चलाव्युं नथी. चैतन्यचमत्कार स्वभाव तो क्षणिक विकार वगर ज नभेलो छे. पण ते स्वभावनुं
भान नथी तेथी पर्यायमां विकारथी चलावे छे. अज्ञान–दशामां पण शरीरादि वगर ज आत्माने चाले छे. जीवने
संयोगरूपे अनंत शरीर आव्या अने पाछा छूटी गया, पण जीव तो ते ने ते ज छे, एटले जीवने शरीर वगर
ज चाले छे. जेना वगर एक क्षण पण नहि चाले एम मान्युं हतुं ते ज पदार्थ वगर जीवे अनंतकाळ काढ्यो छे,
छतां जीवनो नाश थई गयो नथी. जीवने पैसा, स्त्री वगेरे पदार्थो वगर ज चाली रह्युं छे. अने शरीरनुं अंग
कपाई जाय तोपण आत्माने चाले ज छे. शरीरनुं अंग कपातां कांई आत्मानुं ज्ञान कपाई जतुं नथी तेमज
चैतन्यनो नाश थई जतो नथी.
आत्माने चाले छे. कोईए पण पर द्रव्यनुं कर्युं होय एवुं कदी बन्युं ज नथी. कर्म वगेरे पर द्रव्य आत्मने
नुकसान करे–एवी स्थूळ वात तो दूर रहो,–ए तो मिथ्यात्व छे ज. अने अवस्थाना क्षणिक विकारथी त्रिकाळी
आत्मस्वभावनुं भान नथी. क्षणिक अवस्थामां विकारथी नुकसान थाय छे पण अहीं तो त्रिकाळी
चैतन्यस्वभावनी वात छे. चैतन्यस्वभावने पुण्य–पापथी लाभ तो नथी, अने त्रिकाळी चैतन्यद्रव्यने पुण्य–
पापथी नुकसान पण थतुं नथी. पुण्य–पापथी ते समयना पर्यायने नुकसान थाय छे पण त्रिकाळी द्रव्यने
नुकसान थतुं नथी. पर्यायना क्षणिक विकारथी त्रिकाळी चैतन्यस्वभावने नुकसान थयुं एम मानवुं ते पर्यायद्रष्टि
छे, पर्यायद्रष्टिथी ज मिथ्यात्व छे. माटे तुं पुण्य–पापनी द्रष्टि छोडीने त्रिकाळी चैतन्यस्वभावने ज द्रष्टिमां
स्वीकार. हे प्रभाकरभट्ट! तुं सिद्धमां ने तारा आत्मामां कांई भेद न पाड. सिद्ध जेवो स्वभाव अने तेवी ज
अवस्थानुं सामर्थ्य तारामां त्रिकाळ छे. तारुं पद सदा सिद्धसमान छे.–एम आत्माने ओळख. पर्यायद्रष्टि छोडीने
अत्यारे ज तारा आत्माने सिद्धसमान पूरो ध्याव.
चैतन्यचमत्कारनुं ध्यान ते ज मुक्तिनो उपाय छे.