Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २१६ : आत्मधर्म–८२ : श्रावण : २००६ :
चैतन्य स्वभाव ते हुं’ एवा भान द्वारा पोताना आत्मामां चैतन्यस्वभावनी प्रतिष्ठा करी अने पछी तेमां
लीनताथी राग–द्वेष टाळीने केवळज्ञान प्रगट कर्युं; तेमनी आ स्थापना थाय छे. ए अरिहंत भगवाननी जेम
पोताना आत्मामां जे जीव चैतन्य भगवाननी प्रतिष्ठा करे ते जीव अल्पकाळे भगवान थया विना रहे नहि.
पोताना आत्मामां चैतन्य प्रभुनी स्थापना करवी ते परमार्थस्थापना छे. बहारमां भगवाननी स्थापना तो
उपचारथी छे. पंचकल्याणकनी जे बाह्य क्रियाओ थई ते तो तेना थवाना काळे थई छे. जुओ, आ चैतन्यप्रभुनी
लीला छे के ते स्वने जाणतां परने पण जाणी ले छे; पण परमां कांई करे एवी चैतन्य प्रभुनी लीला नथी.
(६०) प्रवचनसारनी स्थापना
आजे आ जिनमंदिरमां श्री प्रवचनसारजी परमागमनी पण स्थापना थई छे, ते प्रवचनसारनी ८०–
८१–८२ मी गाथामां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के जे जीव अरिहंत भगवानना आत्माने द्रव्य–गुण–
पर्यायपणे जाणे छे ते जीव पोताना आत्माने जाणे छे, अने तेनो मोह अवश्य क्षय पामे छे; ए रीते मोहनो
क्षय करीने अने सम्यक् आत्मतत्त्वने पामीने जे राग–द्वेषनो क्षय करे ते शुद्धात्माने पामे छे. बधाय अरिहंत
भगवंत ए ज विधिथी कर्मोनो क्षय करीने निर्वाण पाम्या छे, तथा बधाय अरिहंत भगवंतोए उपदेश पण ए
ज रीते कर्यो छे. भगवाने कहेला सर्व प्रवचनोनो सार शुद्ध आत्मा ज छे. अरिहंत भगवान जेवा पोताना शुद्ध
आत्माने जेणे श्रद्धा–ज्ञानमां लीधो तेणे खरेखर पोताना आत्मामां प्रवचनना सारनी स्थापना करी छे.
(६१) आस्रवभावोथी चैतन्यनी अत्यंत भिन्नता
आत्मानो चैतन्यस्वभाव एवो छे के पोताने जाणतां परने पण ते जाणी ल्ये छे. आस्रवो आत्माना
स्वभावथी विपरीत छे, ते आस्रवो पोताने के परने जाणी शकता नथी, पण ते तो परथी जणावा योग्य छे
एटले के आस्रवोने तो बीजो ज जाणे छे. आस्रवो आत्माथी भिन्न छे एटले आस्रवोनी अपेक्षाए आत्मा
बीजो ज छे. “आत्मा आस्त्रवोथी बीजो ज छे” आम क्यारे कहेवायुं? आस्रवोथी जुदो पडीने पोताना स्वभाव
तरफ जे आत्मा वळ्‌यो ते आत्मा आस्रवथी बीजो ज छे. स्वसन्मुख द्रष्टिथी जे जाग्यो ते चैतन्यनी वृद्धिने जुए
छे ने आस्त्रवोने गौण करे छे. निमित्तरूप जड कर्मो तो पर छे, ते आत्माथी अत्यंत भिन्न छे, ने आस्रवभावने
पण अहीं तो चैतन्यथी अत्यंत भिन्न बतावीने श्री आचार्यदेव कहे छे के तारी श्रद्धाने वस्तु–स्वभावनी
सन्मुख बनाव, व्यवहारना आश्रयनी श्रद्धा छोड. व्यवहार पोते निश्चयवडे जणावा योग्य छे, व्यवहार (–
शुभराग) पोते निश्चय के व्यवहारने जाणतो नथी. चैतन्यना आश्रयने चूकीने धर्मना नामे बाह्य विधि–
निषेधमां जगतना घणा जीवोनो वखत चाल्यो जाय छे. बाह्य पदार्थोथी तो आत्मा जुदो छे एटले आत्मा ते
पदार्थोने ग्रहतो ज नथी. परंतु अहीं तो कहे छे के भगवान आत्मा आस्रवना विकारी भावोने पण पोताना
स्वभावमां ग्रहतो नथी, आत्मा विकारथी पण भिन्न छे. अंतरमां जे पुण्य–पाप थाय छे ते चैतन्यना
स्वभावथी अन्य छे, जुदा छे; जो के आकाश–क्षेत्रनी अपेक्षाए जुदा नथी पण स्वभावनी अपेक्षाए जुदा छे.
विकारीभावो चैतन्यनो स्वभाव नथी, माटे ते आत्माथी भिन्न छे. आवा आत्मस्वभावने ओळखीने तेमां
एकाग्रता प्रगट करवी ते मोक्षनो उपाय छे.
आत्मधर्मना पाछला अंको
“आत्मधर्म”ना पाछला अंको सिलकमां छे. जेमने फाईल माटे कोई अंकोनी जरूर होय तेओ तुरत
मंगावी लेशो. छूटक अंकनी किंमत ०–४–० छे.
(नं. १, ६, ४९, ५०, ५१, ५४, ५७, ५८, अने ५९ ए सिवायना बीजा बधा अंको सिलकमां छे.) आ
उपरांत जे भाईओने आत्मधर्मनो नमूनो जोवा ईच्छा होय तेमने पोस्टकार्ड लखवाथी नमूनानो अंक विना
मूल्य मोकलाशे. आत्मधर्मना ग्राहको पण कोई जिज्ञासुना सरनामा मोकलशे, तो तेमने पण आत्मधर्मनो अंक
नमूना तरीके मोकलाशे, आ संबंधी पत्र “श्री जैन स्वाध्याय मंदिर, सोनगढ” ए सरनामे लखवो.
[पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचननी रेकर्ड बाबत गया अंकमां जे समाचार छाप्या छे ते रेकर्ड सोनगढथी रूबरू
ज मळी शकशे, टपाल के रेल्वे द्वारा मोकली शकाशे नहि, माटे जिज्ञासुओए ते सोनगढथी मंगावी लेवानी
व्यवस्था करवी.
]