लीनताथी राग–द्वेष टाळीने केवळज्ञान प्रगट कर्युं; तेमनी आ स्थापना थाय छे. ए अरिहंत भगवाननी जेम
पोताना आत्मामां जे जीव चैतन्य भगवाननी प्रतिष्ठा करे ते जीव अल्पकाळे भगवान थया विना रहे नहि.
पोताना आत्मामां चैतन्य प्रभुनी स्थापना करवी ते परमार्थस्थापना छे. बहारमां भगवाननी स्थापना तो
लीला छे के ते स्वने जाणतां परने पण जाणी ले छे; पण परमां कांई करे एवी चैतन्य प्रभुनी लीला नथी.
क्षय करीने अने सम्यक् आत्मतत्त्वने पामीने जे राग–द्वेषनो क्षय करे ते शुद्धात्माने पामे छे. बधाय अरिहंत
भगवंत ए ज विधिथी कर्मोनो क्षय करीने निर्वाण पाम्या छे, तथा बधाय अरिहंत भगवंतोए उपदेश पण ए
ज रीते कर्यो छे. भगवाने कहेला सर्व प्रवचनोनो सार शुद्ध आत्मा ज छे. अरिहंत भगवान जेवा पोताना शुद्ध
आत्माने जेणे श्रद्धा–ज्ञानमां लीधो तेणे खरेखर पोताना आत्मामां प्रवचनना सारनी स्थापना करी छे.
एटले के आस्रवोने तो बीजो ज जाणे छे. आस्रवो आत्माथी भिन्न छे एटले आस्रवोनी अपेक्षाए आत्मा
बीजो ज छे. “आत्मा आस्त्रवोथी बीजो ज छे” आम क्यारे कहेवायुं? आस्रवोथी जुदो पडीने पोताना स्वभाव
तरफ जे आत्मा वळ्यो ते आत्मा आस्रवथी बीजो ज छे. स्वसन्मुख द्रष्टिथी जे जाग्यो ते चैतन्यनी वृद्धिने जुए
छे ने आस्त्रवोने गौण करे छे. निमित्तरूप जड कर्मो तो पर छे, ते आत्माथी अत्यंत भिन्न छे, ने आस्रवभावने
पण अहीं तो चैतन्यथी अत्यंत भिन्न बतावीने श्री आचार्यदेव कहे छे के तारी श्रद्धाने वस्तु–स्वभावनी
सन्मुख बनाव, व्यवहारना आश्रयनी श्रद्धा छोड. व्यवहार पोते निश्चयवडे जणावा योग्य छे, व्यवहार (–
निषेधमां जगतना घणा जीवोनो वखत चाल्यो जाय छे. बाह्य पदार्थोथी तो आत्मा जुदो छे एटले आत्मा ते
पदार्थोने ग्रहतो ज नथी. परंतु अहीं तो कहे छे के भगवान आत्मा आस्रवना विकारी भावोने पण पोताना
स्वभावमां ग्रहतो नथी, आत्मा विकारथी पण भिन्न छे. अंतरमां जे पुण्य–पाप थाय छे ते चैतन्यना
स्वभावथी अन्य छे, जुदा छे; जो के आकाश–क्षेत्रनी अपेक्षाए जुदा नथी पण स्वभावनी अपेक्षाए जुदा छे.
विकारीभावो चैतन्यनो स्वभाव नथी, माटे ते आत्माथी भिन्न छे. आवा आत्मस्वभावने ओळखीने तेमां
एकाग्रता प्रगट करवी ते मोक्षनो उपाय छे.
मूल्य मोकलाशे. आत्मधर्मना ग्राहको पण कोई जिज्ञासुना सरनामा मोकलशे, तो तेमने पण आत्मधर्मनो अंक
नमूना तरीके मोकलाशे, आ संबंधी पत्र “श्री जैन स्वाध्याय मंदिर, सोनगढ” ए सरनामे लखवो.
व्यवस्था करवी.