Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००६ : आत्मधर्म–८२ : २१५ :
जेणे भेदज्ञानचक्षुवडे आत्माने पुण्य–पापरहित चैतन्यस्वरूपे जाण्यो तेणे पुण्य–पापने पोताना स्वभाव तरीके
न मान्या एटले के तेणे पुण्य–पापने जडस्वभावे जाण्या. ए सिवाय कांई लाकडां वगेरे जड पदार्थोनी जेम
पुण्य–पाप कोई स्वतंत्र पदार्थ नथी. हुं परथी भिन्न छुं ने क्षणिक विकार जेटलो पण हुं नथी पण कायम शुद्ध
चैतन्यस्वभाव छुं–एम ओळखाण करे तेणे आत्मा अने आस्रवोने जुदा जाण्या. ए प्रमाणे भेदज्ञानचक्षुवडे
आत्मा अने आस्रवोने जुदा जाणीने आत्मामां एकाग्र थतां आस्त्रव टळीने मुक्तदशा प्रगटे छे. आ मोक्षनो
उपाय छे.
(५७) आस्रवो व्यवहारज्ञेय क्यारे थाय?
आस्त्रवभावो अशुचिरूप छे ने आत्मा पवित्र छे. आस्त्रवनो एक अंश पण स्वभावने रोके छे तेथी ते
आत्माना स्वभावथी विपरीत छे. आत्मानो स्वभाव स्व–परने जाणनार छे तेथी ते चेतनस्वभाव छे अने
आस्रवो पोते कांई जाणता नथी तेथी ते जडस्वभाव छे. आस्रवो तो बीजावडे ज्ञेय थवा योग्य छे. अहीं
‘आस्रवो बीजावडे ज्ञेय थवा योग्य छे’ एम कहीने आस्रवोने आत्माना व्यवहारज्ञेय तरीके सिद्ध कर्यां छे. ते
आस्रवो खरेखर व्यवहारज्ञेय क्यारे थाय? ज्यारे आत्मा आस्रवोथी भिन्न पोताना स्वभावने जाणीने,
आस्रवोथी पाछो फरीने स्वभाव तरफ वळ्‌यो त्यारे तेनी स्व–पर प्रकाशक ज्ञानशक्ति खीली, ते ज्ञानशक्ति
खीलतां आस्रवोने पोताथी भिन्न जाण्या एटले के आस्रवो पण परज्ञेय थई गया, तेथी ते व्यवहारज्ञेय थयुं.
आस्रव ते हुं–एवी पर्यायबुद्धिथी स्व–पर ज्ञानशक्ति खीलती नथी एटले आस्रवो व्यवहारज्ञेय थता नथी.
आस्रवोथी जुदो पड्या वगर आस्रवोने व्यवहारज्ञेय करशे कोण? जेणे परमार्थज्ञेय तरीके आत्माने लक्षमां
लीधो छे ते आस्रवोने व्यवहारज्ञेय तरीके जाणे छे. आस्रवरहित स्वभाव तरफ वलण थतां स्व–पर प्रकाशक
ज्ञान खीले छे. जे जीवने वस्तुस्वभावनी यथार्थ श्रद्धा नथी ते जीव आस्रवोने पर तरीके जाणी शकतो नथी.
चैतन्य स्वभावमां विकारनो अभाव छे–एम स्वभावनी प्रतीति करे ते जीव रागने पर तरीके जाणी शके छे.
(५८) साधक भावने कोनो आधार छे?
विकारने लीधे चैतन्य स्वभाव टकतो नथी पण विकारना अभावरूप स्वभाव छे; विकारनो नाश थतां
स्वभावनो नाश थई जतो नथी; ए रीते आत्मा विकारथी भिन्न छे. आत्माना स्वभावना आश्रये ज
साधकभाव प्रगटे छे–टके छे ने वधे छे; विकारना आश्रये साधकभाव प्रगटतो नथी–टकतो नथी ने वधतो नथी.
अणुव्रतना के पंचमहाव्रतना शुभ विकल्पने लीधे पांचमुं के छठ्ठुं गुणस्थान टके छे एम नथी, पण स्वभावना
आश्रयथी ज रागनो अभाव थईने ते दशा प्रगटे छे ने स्वभावना आश्रये ज ते दशा टके छे. जेम आंधळो
देखताने दोरी शके नहि तेम शुभरागरूप व्यवहार पोते आंधळो छे ते निश्चयनुं कारण थई शके नहि, ने तेना
आधारे निश्चय टके नहि. व्यवहार–विकल्प हो भले, तेना होवानो निषेध नथी पण तेना आधारे परमार्थ धर्म
प्रगट थशे–ए मान्यता जूठी छे. भाई! ए क्षणिक पराश्रयी भावोनी द्रष्टि छोडीने तारा चैतन्यनी नित्यता
तरफनुं वलण तो कर. स्वभावसन्मुख वलणमां तने व्यवहारनुं पण ज्ञान थई जशे. हुं विकारनी सामे जोईने
तेनो जाणनार नहि पण स्वभावनी सन्मुख रहीने तेनो जाणनार छुं–एम ज्ञानीने स्वभावसन्मुखतानी
मुख्यता छे, एक समय पण ज्ञानीनी द्रष्टिमां व्यवहारनी मुख्यता थती नथी. स्वभावनी मुख्यताना जोरे ज
साधकदशा छे. जो स्वभावनी मुख्यता खसीने विकारनी मुख्यता थाय तो साधकदशा टके नहि. श्रद्धानो विषय जे
निश्चय एकरूप स्वभाव छे तेनी मुख्यताथी साधकदशानी शरूआत थाय छे ने ते स्वभावनी मुख्यताथी ज
साधकदशा वधीने पूर्ण मुक्तदशा प्रगटे छे. भगवान आवा उपायथी ज मोक्ष पाम्या.
(५९) चैतन्यप्रभुनी प्रतिष्ठा
जुओ, आजे आ राजकोटना जिनमंदिरमां श्री सीमंधर भगवान वगेरेनी स्थापना थाय छे एटले
अरिहंत भगवाननी प्रतिष्ठानो मंगळदिवस छे; ते प्रतिष्ठामहोत्सवमां आ आत्मामां स्वभावनी प्रतिष्ठा
करवानी वात छे. विकार ते हुं–एम मानीने अनादिकाळथी आत्मामां विकारनी प्रतिष्ठा करी हती. विकारथी
भिन्न चैतन्यस्वभावने जाणीने, विकारभावोनी आत्मामां प्रतिष्ठा न करतां, ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’ एम
आत्मामां चैतन्यस्वभावनी प्रतिष्ठा करवी ते धर्म छे. श्री अरिहंत भगवाने पण ‘विकार ते हुं नहि, अखंड