Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २१४ : आत्मधर्म–८२ : श्रावण : २००६ :
लोको सेवाळ अने पाणीने जुदा जाणीने, सेवाळ काढीने पाणी पीए छे; तेम भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति सदा
अति निर्मळ छे ने पुण्य–पाप विकार ते सेवाळ जेवा अत्यंत मलिन छे; ए बंनेने एकपणे अनुभवे छे ते
अज्ञानी छे. आत्मा अने विकार बंनेनो स्वभाव जुदो जुदो जाणीने, विकाररहित पवित्र आत्मस्वभावनो
अनुभव करवो ते भेदज्ञान छे, ने ते ज मोक्षनो उपाय छे. अहीं शुद्ध आत्मद्रव्य बताववुं छे तेथी चैतन्यमात्र
स्वभावने ज आत्मा कह्यो छे, ने विकारी भावोने अशुचिमय कहीने आत्माथी भिन्न जणाव्या छे. भगवान
आवा स्वभावनुं भान करीने, विकारथी खसीने स्वरूपमां ठर्या त्यारे मुक्ति पाम्या; आवा मुक्तिना उपायने
समजवो ते धर्म छे. ए सिवाय बीजो मोक्षनो उपाय नथी.
(५३) व्यवहारना आश्रये शुं थाय?
लोको अज्ञानभावे व्यवहारना आश्रयने मोक्षनुं साधन माने छे. परंतु व्यवहारनो आश्रय ते तो
बंधननुं कारण छे, तेना आश्रये मोक्षनुं साधन प्रगटतुं नथी. आत्माना परमार्थस्वभावना आश्रये ज मोक्षनुं
साधन प्रगटे छे. विकारी भावो ते आत्माना पवित्र स्वभावथी विरोधी भाव छे, तेम व्यवहार ते परमार्थनो
विरोधी छे. ते व्यवहारना अवलंबने आस्रवो टळता नथी पण आस्रवो उत्पन्न थाय छे; अने आत्माना
स्वभावना आश्रये ज आस्रवो अटकी जाय छे.
(५४) आत्मा अने आस्रवोनी भिन्नता
आत्मा चैतन्यसत्तावाळो होवाथी स्व–परने जाणे छे, अने विकारभावो तो पोताने के परने जाणता नथी
तेथी तेओ जड स्वभाववाळा छे. जे विकारथी जुदो पडीने आत्माना स्वभाव तरफ वळ्‌यो ते जीव पोताने तेम ज
विकारने जाणे छे. अने जे विकारमां ज एकपणुं मानीने अटक्यो छे ते जीव पोताने के परने जाणतो नथी. अहीं
आत्मा अने विकारीभावो जुदा कई रीते छे? ते समजावतां श्री आचार्यदेव कहे छे के आत्मा तो ज्ञानस्वभावी
होवाथी स्व–परने जाणे छे ने विकारी आस्रवो तो पोताने के परने जाणतां नथी, पण बीजो तेने जाणे छे, तेथी ते
विकारी आस्रवो तो जडस्वभाववाळां छे. ए रीते आत्मा अने आस्रवो भिन्न भिन्न छे. चैतन्यनी जागृतिने
रोकीने जे भाव थाय तेने अहीं जड कह्या छे. जड एटले कांई ते परमाणुमां थता नथी, पण आत्मानो स्वभाव
नथी माटे तेने जड कह्या छे. जे भाव चैतन्यमां एकता न करे ने चैतन्यनी रमणताने रोके तेने चैतन्य केम
कहेवो? पंचमहाव्रत जे भावे थाय ते शुभभाव पण आत्माना स्वभावमां नथी तेथी ते जडमां जाय छे; ते
शुभरागना फळमां जडनो संयोग थाय छे. ते राग चैतन्यनी साथे एकता धरावतो नथी तेम ज ते चैतन्यनी
एकता प्रगटवानुं कारण नथी. साचा देव–गुरु–शास्त्रनी भक्तिना भाव थाय ते पण अशुचिभाव छे; आत्माना
स्वभावथी विपरीत भाव छे तेथी ते जड–स्वभाव छे. आ रीते आत्मा अने आस्रवोने अत्यंत भिन्नता छे.
(५५) शुभराग, अने धर्मीनुं कर्तव्य
प्रश्न :– पुण्यभाव ते अशुचि अने जडस्वभाव छे एम कह्युं, तो भक्ति वगेरेनो शुभराग करवो के
नहि?
उत्तर :– ज्यांसुधी वीतरागता न थाय त्यांसुधी राग तेना काळे थया विना रहेशे नहि; पण राग ते मारो
स्वभावभाव नथी, मारो चैतन्यस्वभाव रागरहित छे–एम अंतरमां राग अने चैतन्यस्वभावनुं भेदज्ञान करवुं
जोईए. राग तो वीतरागने न थाय, पण जे रागी छे तेने तो रागना काळे भक्ति वगेरे भाव थया विना रहे
नहि. कां तो तीव्र विषयकषायमां पडेला जीवने शुभराग न थाय अने कां तो वीतराग थई गया होय तेने
शुभराग न थाय, पण नीचलीदशामां रहेला पात्र जीवने तो भक्ति–स्वाध्याय वगेरे शुभभावो थया विना रहे
नहि. पण ते राग वखते धर्मीने अंतरमां भान होय छे के आ रागभाव छे ते मारा स्वभावथी विरुद्धभाव छे,
मारो स्वभाव रागनो कर्ता नथी. हुं तो पवित्र चैतन्यस्वरूप छुं. ए रीते शुभराग थवा छतां धर्मी तेने पोतानुं
कर्तव्य मानतो नथी, स्वभावना आश्रये जे वीतरागभाव प्रगट्यो तेने ज पोतानुं कर्तव्य माने छे.
(५६) भेदज्ञान चक्षु
श्री आचार्यदेव कहे छे के आत्माने पवित्र चैतन्यस्वरूपे देखवो अने पुण्य–पाप वगेरे आस्रवभावोने
अशुचिरूप अने जड स्वभाववाळा देखवा. अहीं पुण्य–पापने जडस्वभाव तरीके जोवानुं कह्युं ते कई रीते
जाणाय? आ बहारनी आंखथी ते देखाय नहि, पण चैतन्य–स्वभावनी रुचि थतां स्वभावना ज्ञानचक्षु वडे
पुण्य–पाप ते जडस्वभाव तरीके जणाय छे.