शास्त्रनी प्रतिष्ठा थई, ते दिवसे पू. गुरुदेवश्रीनुं समयसार गा. ७२ उपर मंगल–प्रवचन.
द्रश्य थयुं हतुं. भगवान शुं करवाथी मोक्ष पाम्या? ते वात अत्यारे कहेवाय छे. भगवाने पर जीवोनुं कांई कर्युं
नथी, पण पोताना आत्मामां प्रथम भेदज्ञान प्रगट कर्युं अने तेना प्रतापे केवळज्ञान प्रगट करीने भगवान मोक्ष
पाम्या छे.
छे. आत्माना ज्ञानस्वभावने अनुभवतां ते पवित्रस्वरूपे अनुभवाय छे अने पाप तेम ज पुण्य ए बंने भावो
आत्मामां मेलपणे अनुभवाय छे. शरीर अशुचिमय छे ते तो आत्माथी सदाय भिन्न, जड छे. आत्मानी
अवस्थामां थती पुण्य–पापनी लागणी ते पण अपवित्र छे, मेल छे, अशुचि छे; अने भगवान आत्मा तो
ज्ञानानंद–मूर्ति पवित्र छे, निर्मळ छे, शुचि छे. आ प्रमाणे आत्मा अने विकारने जुदा जुदा जाणीने, विकारी
भावोथी पाछो फरीने आत्मा पोताना स्वभाव तरफ वळे छे. ए रीते विकारथी निवृत्त थतां आत्माने कर्मनुं
बंधन थतुं नथी. आ रीते आत्मा अने विकारनुं भेदज्ञान ते ज मुक्तिनो उपाय छे.
तारामां पण सर्वज्ञदशा प्रगटे. विकार ते ज हुं–एवी तुच्छबुद्धि ते भवभ्रमणनुं कारण छे. ने विकारथी भिन्न
आत्मस्वभावनुं भान करवुं–ते भेदज्ञान मुक्तिनो उपाय छे. भगवान्! तारो आत्मा सदाय ज्ञानमूर्ति निर्मळ
छे, क्षणिक शुभ–अशुभ लागणी जेटलो तुं नथी. तारी प्रभुता तारामां भरी छे. सर्वज्ञनी वाणीमां पण तारा
वर्णव्यो छे, तेमांथी गूलांट मारीने आचार्यदेवे टीकामां आत्माना पवित्र स्वभावनी वात काढी छे. आस्रवो
अशुचि छे, तो तेनी सामे भगवान आत्मा शुचि छे,–एम अस्तिनास्तिथी वर्णन कर्युं छे. पुण्य अने पाप ए
बंने भावो आस्रव छे; ते आस्रवो तो मलिन स्वभाववाळा छे ने भगवान आत्मा तो सदाय पवित्र
स्वभाववाळो छे.–एम अहीं आचार्यदेव आत्मानी प्रभुता बतावी विकारथी भेदज्ञान करावे छे.
कोई सेवाळवाळुं पाणी पीए तो ते मूर्ख गणाय.