: २१२ : आत्मधर्म–८२ : श्रावण : २००६ :
ज्ञानी उत्तम कहेता नथी. जेणे स्व–परनो विवेक प्रगट कर्यो छे ते ज खरेखर मनुष्य छे, अने एने ज ज्ञानीओ उत्तम
कहे छे. हुं कोण ने मारुं स्वरूप शुं? तथा माराथी भिन्न पदार्थो शुं? तेनो जेने विवेक नथी तेने धर्म थतो नथी.
अंतरमां स्व–परनो विवेक प्रगट कर्या वगर, मात्र बे हाथ, बे पग, मोढुं वगेरे आकृति उपरथी ज
मनुष्यपणुं न समजवुं; केमके जो एम गणो तो तो वांदराने पण ते बधुं छे तेथी तेने पण माणस कहेवो पडे. ‘बे
हाथ, बे पग, बे आंख, बे कान, एक मुख, बे होठ अने नाक ए जेने होय तेने मनुष्य कहेवुं–एम आपणे
समजवुं नहि. जो एम समजीए तो पछी वांदराने पण मनुष्य गणवो जोईए, एणे पण ए प्रमाणे सघळुं प्राप्त
कर्युं छे. विशेषमां एक पूछडुं पण छे, त्यारे शुं एने महा मनुष्य कहेवो? नहि. मानवपणुं समजे ते ज मानव
कहेवाय.’ देहथी भिन्न आत्मानुं यथार्थ स्वरूप समजीने अंतरमां विवेक प्रगट करे ते ज मानव छे. अमूल्य
तत्त्वविचारमां पण ‘विवेक’ संबंधी श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
‘हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरू?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरूं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या,
तो सर्व आत्मिक ज्ञाननां सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्यां.’
हुं आ देह नथी पण हुं आत्मा छुं, हुं नवो थयो नथी पण अनादिनो छुं, हुं ज्ञानस्वरूप छुं, रागादिभावो
मारुं खरुं स्वरूप नथी, देहादि परवस्तु साथे मारे कांई संबंध नथी.–ए प्रमाणे अंतरमां आत्मानो विचार अने
विवेक प्रगट करे ते जीवे आत्मिक ज्ञाननां सर्व तत्त्वो अनुभव्यां छे.
‘ज्ञानीओ कहे छे के ए मानवभव बहु दुर्लभ छे; अति पुण्यना प्रभावथी ए देह सांपडे छे.’ –‘बहु
पुण्य केरा पुंजथी शुभ देह मानवानो मळ्यो’–‘माटे एथी उतावळे आत्मसार्थक करी लेवुं. गजसुकुमार जेवां
नानां बाळको पण मानवपणाने समजवाथी मोक्ष पाम्या. मनुष्यमां जे शक्ति वधारे छे ते शक्ति वडे करीने
मदोन्मत्त हाथी जेवा प्राणीने पण वश करी ले छे; ए ज शक्तिवडे जो तेओ पोताना मनरूपी हाथीने वश करी
ले तो केटलुं कल्याण थाय!’
जगतमां एकेन्द्रिय तथा कीडी वगेरेनी संख्या घणी छे, तथा नारकी अने देवोनी संख्या पण घणी छे, पण
मनुष्यो घणा थोडा छे. मनुष्यदेह मळवो महा मोंघो छे. माटे एवो दुर्लभ मनुष्यदेह पामीने उतावळे आत्म–
कल्याण करी लेवुं. शरीरथी जुदा ज्ञानमूर्ति आत्मानुं भान करी लेवुं तेमां ज मानवजीवननी सार्थकता छे. श्रीमद्दे
पोते नानी उंमरमां आ रचना करी छे अने तेमां वैराग्यना दाखला पण नानी उंमरना राजकुमारोना आप्या छे.
गजसुकुमार वगेरे राजकुमारो नानी उंमरमां आत्मभान करीने अने संसारथी वैराग्य पामीने मोक्ष पाम्या छे.
‘कोई पण अन्य देहमां पूर्ण सद्दविवेकनो उदय थतो नथी, अने मोक्षना राजमार्गमां प्रवेश थई शकतो
नथी. एथी आपणने मळेलो ए बहु दुर्लभ मानवदेह सफळ करी लेवो अवश्यनो छे.’ अन्य त्रण गतिमां
सम्यग्ज्ञान थई शके छे परंतु पूर्ण सद्दविवेक एटले के केवळज्ञान तो मनुष्यपणामां ज थाय छे. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र ते मोक्षनो राजमार्ग छे. सम्यग्दर्शन अने ज्ञान पण मोक्षनां कारण छे अने ते चारे गतिमां थाय
छे, परंतु सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र ते मोक्षनो राजमार्ग छे एटले के साक्षात् मोक्षमार्ग
छे, अने ते आ मनुष्यभवमां ज थाय छे. एवो दुर्लभ मनुष्य अवतार प्राप्त थयो छे माटे जेम बने तेम त्वराथी
आत्मानी ओळखाण करीने वीतराग–मार्गमां सावधान थवुं.
‘केटलाक मूर्खो दुराचारमां, अज्ञानमां, विषयमां अने अनेक प्रकारना मदमां, मळेलो मानवदेह वृथा
गुमावे छे, अमूल्य कौस्तुभ हारी बेसे छे. ए नामना मानव गणाय, बाकी तो वानररूप ज छे.’ आ अमूल्य
चिंतामणी जेवो मनुष्यदेह पामीने आत्मार्थ साधवाने बदले केटलाक मूर्ख जीवो विषय–कषायमां गुमावी दे छे,
तथा केटलाक जीवो आत्माने समज्या विना क्रियाकांडमां रोकाईने अज्ञानमां ने अज्ञानमां मनुष्यभव हारी जाय
छे. जो आत्मानुं भान न करे तो, वानरना जीवनमां ने मानवना जीवनमां अहीं कांई फेर गण्यो नथी. माटे
जेम बने तेम जल्दी सत्समागमे आत्मानी ओळखाण करवी, अने आ मनुष्यभवमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप धर्मनुं सेवन करवुं–ए जरूरनुं छे. आ ज आत्महितनो उपाय छे.
सणोसरा गाममां वीर सं. २४७५ ना फागण वद ७ ना रोज पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन.
(श्रीमद् राजचंद्र : मोक्षमाळा पाठ ४ थो मानवदेह.)