थईने मननो अने रागद्वेषनो अभाव थाय छे. ज्यां सुधी एवुं भेदज्ञान न करे त्यां सुधी चैतन्यमां एकाग्रता के
रागादिनो अभाव थाय नहीं.
आत्मस्वरूपना भान वगर कोई जीव मौन राखे के वनमां रहे तोपण तेने रागनो ज आश्रय पडयो छे,
ज्ञानीने, गृहस्थपणामां होय तोपण, समाधि ज छे. नाटक–समयसार पृ. १८७ मां सम्यग्दर्शननी प्रशंसा करतां
पं. बनारसीदासजी कहे छे के–
जिन्हकी सुद्रिष्टि में न परचै विषमतासों, समतासों प्रीति ममतासो लष्ट पुष्ट है।।
जिन्हके कटाक्षमें सहज मोखपंथ सधै, मनको निरोध जाके तनको न कष्ट है।
तिन्हके करमकी कलोल यह है समाधि, डोले यह जोगासन बोले यह मष्ट है।।२९।।
प्रत्ये जेने प्रेम छे ने ममताभाव प्रत्ये द्रोह छे, जेमना ज्ञानकटाक्षवडे सहजपणे मोक्षमार्ग सधाय छे अने
कायकलेशादि तप वगर जेओ मननो निरोध करे छे एवा सम्यग्ज्ञानी जीवोने कर्मना कल्लोलरूप विषयभोग ते
समाधि छे, तेओ चाले–फरे के डोले ते योगासन छे, अने तेओ बोले ते मौन छे.
झरी ज जाय छे. समाधि, योगासन के मौन वगेरेनुं जे फळ छे ते फळ तो ज्ञानीने सम्यग्दर्शनने लीधे, हालतां–
चालतां–बोलतां पण सहजमां होय छे. सम्यग्दर्शननो आवो अटपटो महिमा छे. जे कार्य निर्विकल्प समाधिनुं छे ते
ज कार्य हालतां, चालतां, खातां, पीतां, बोलतां–ए बधा वखते ज्ञानीने चैतन्यद्रष्टिना जोरे थया ज करे छे.
चैतन्यस्वभावनो पक्ष छे अर्थात् स्वरूपनी द्रष्टि छे ने विकारनो पक्ष–आश्रय छोडयो छे तेमने निर्विकल्प समाधि
छे–निर्जरा ज छे. अने जेने चैतन्यनी द्रष्टि नथी पण रागनो पक्ष छे–रागनो आश्रय मान्यो छे तेने कदी वीतरागी
समाधि होती नथी पण रागनी ज उत्पत्ति होय छे. चैतन्यना आश्रये जे समाधि होय छे ते ज वीतरागी होय छे–
एम समजवुं.
पूर्वे कह्युं हतुं के सिद्ध जेवो आत्मा आ देहमां वसे छे; अहीं हवे नयविवक्षा लागु पाडीने ते कथननुं
नथी पण पोताना स्वरूपमां ज रहेलो छे.
सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णे बहुएण।।२९।।
सदा देहथी अत्यंत भिन्न पोताना स्वरूपमां ज स्थित छे, तेने ज हे जीव! तुं परमात्मा जाण अने तेनुं ज ध्यान
कर. तारा स्वरूपथी जुदा एवा देहादिक तथा रागादिकथी तारे शुं प्रयोजन छे?
अभेद अपेक्षाथी एटले के आत्मा अने शरीर एक जग्याए रहेलां छे एवी अपेक्षाए आत्मा शरीरमां
पोताना स्वरूपमां ज रहेलो छे, शरीरमां रह्यो नथी. एवा स्वस्वरूपमां रहेला आत्माने ज परमात्मा जाणीने
तेनुं ध्यान करो. पोताथी जुदा आ देह तथा रागादिनुं शुं प्रयोजन छे? जे पोतानुं स्वरूप नथी, ने पोताथी जुदां
छे एवा पदार्थोनी चिंता करवाथी शुं लाभ छे? माटे हे जीव! तारा आत्माने ज परमात्मा जाणीने तेनुं ज
चिंतवन कर. तारे तारो शुद्धात्मस्वभाव ज उपादेय छे.–आ ज तात्पर्य छे.