भाद्रपदः २४७६ः २३७ः
निजस्वरूप तारी पासे ज होवा छतां तुं केम तेने जाणतो नथी? तारुं स्वरूप परम महिमावंत छे तेने छोडीने
बीजानुं माहात्म्य तुं केम करे छे? आत्मा चैतन्यस्वरूप छे तेनो महिमा कर, तेने ज जाण! (वीर सं. २४७३
भादरवा वद २)
(१८१) स्वभाव सिवाय बीजा तरफ ज्ञानने वाळवुं ते प्रपंच छे
हे भाई, परद्रव्योने तो तुं तारा ज्ञानवडे जाणे छे, तो महिमावंत एवा तारा स्वभावने ज तुं केम नथी
जाणतो? ज्ञान करनार तुं पोते छो, छतां तारा ज्ञानने स्वमां न वाळतां परने ज जाणवामां रोके छे, ते प्रपंच
छे–दुःख छे. शास्त्रना ज्ञानमां रोकाणो पण आत्मस्वभावने ज जाण्यो तो ते पण प्रपंच छे. माटे एवो प्रपंच
छोडीने तुं तारा ज स्वभावने जाण. ।। २७।।
(१८२) शुद्धात्मस्वभाव केवो छे?
शुद्धात्मानी भावना माटे शास्त्रकार फरी फरीने तेनुं स्वरूप वर्णवे छे–
(गाथा–२८)
जित्थु ण इंदियसुहदुहइं जित्थु ण मण–वावारु।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुं अण्णु परिं अवहारु।।२८।।
भावार्थः– शुद्धात्मस्वभावमां आकुळतारहित अतीन्द्रिय सुखथी विपरीत एवां, आकुळता उत्पन्न
करनारां इन्द्रियजन्य सुख–दुःख नथी, तथा संकल्प–विकल्परूप मननो व्यापार नथी.–आवा लक्षणवाळा पदार्थने
हे जीव! तुं आत्माराम मान, ए सिवाय अन्य सर्वे विभावोने छोड.
ईंद्रियजन्य सुख–दुःख आत्माना स्वभावमां नथी. जडमां तो सुख–दुःख नथी, अने जड संबंधी जे
सुख–दुःखनी क्षणिक कल्पना छे ते चैतन्यनुं स्वरूप नथी. मनना व्यापारथी जे संकल्प–विकल्प थाय ते पण
आत्मस्वभावमां नथी. आत्मा चैतन्यचमत्कार चिंतामणि छे.
(१८३) तुच्छ अने अधिक पर्यायो
आत्मानो जे पर्याय चैतन्यस्वभावनो आश्रय छोडीने बहारना आश्रयमां रोकाय ते तुच्छ छे, ते
आत्मानुं स्वरूप नथी. अने जे पर्याय स्व तरफ वळीने चैतन्यस्वभावमां ज लीन थाय–चैतन्यनो ज आश्रय
करे ते पर्याय त्रिकाळी चैतन्य साथे अभेद थाय छे ने रागादिकथी अधिक थाय छे. हे शिष्य! रागादिकथी रहित
एवा चैतन्यचमत्कार चिंतामणिने तुं आत्माराम जाण अने अन्य सर्वे विभावोने छोड. आ शुद्ध आत्मा ज चार
गतिना भवभ्रमणथी थाकेला जीवोने आरामनुं स्थान छे.
(१८४) आत्माने जाणवो ते ज धर्म
जेनुं स्वरूप त्रिकाळ ज्ञान–आनंदस्वरूप छे एवा शुद्धात्मस्वरूपने वीतरागी निर्विकल्प समाधिमां स्थित
थईने जाणो. अहीं शुद्ध आत्मस्वभावने जाणवो ते ज धर्म छे. विकारनो आश्रय करवो ते अधर्म छे अने
विकाररहित चैतन्यस्वभावने जाणीने तेनो आश्रय करवो ते धर्म छे.
(१८प) वीतरागी निर्विकल्प समाधि कयारे थाय?
निर्विकल्प समाधि वीतरागतारूप ज होय छे, तेथी निर्विकल्प समाधिने ‘वीतराग’ विशेषण कहेवामां
आव्युं छे. प्रथम तो जेने रागरहित आत्मस्वभावनुं सम्यग्ज्ञान होय अने ए सम्यग्ज्ञानपूर्वकनी एकाग्रता होय
तेने ज निर्विकल्प वीतरागी समाधि होई शके. जे जीव रागरहित आत्मस्वरूपने जाणे नहि अने रागने ज
आत्मा मानतो होय ते जीवने रागमां ज एकाग्रता होय पण वीतरागी आत्मामां एकाग्रता न थाय, एटले ते
जीवने वीतरागी समाधि होय नहीं. परद्रव्यना संबंधरहित तेमज विकाररहित ज्ञानमूर्ति वीतरागी आत्मतत्त्वने
जाण्या वगर वीतरागी समाधि थई ज शके नहि. चैतन्यतत्त्वने जाण्या वगर एकाग्रता कये ठेकाणे करशे? जे
चैतन्य स्वभावमां रागनुं के परनुं अवलंबन ज नथी एवा स्वभावमां एकाग्रता ते ज वीतरागी निर्विकल्प
समाधि छे. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए त्रणे वीतरागी निर्विकल्प समाधिरूप छे. ज्यांसुधी
परना आश्रय विनानो निरपेक्ष परिपूर्ण स्वभाव द्रष्टिमां न आवे त्यां सुधी ते स्वभावमां निर्विकल्प रागरहित
स्थिरता थई शके नहीं, अने जीव कोईने कोई प्रकारे परावलंबनमां ज अटकया करे. तथा रागमां ज एकपणुं
मानीने त्यां ज एकाग्र रह्या करे. केम के तेना अभिप्रायमां ज राग अने आत्मानी एकता वर्ते छे. हजी
अभिप्रायमां पण जे जीव राग अने आत्मानी भिन्नता न स्वीकारे ते जीव रागथी खसीने आत्मामां एकाग्र शी
रीते थाय? पहेलां तो अभिप्रायमां एम भेद पाडे के मारा चैतन्यस्वरूपमां मन के रागद्वेष नथी, पछी एवा
सम्यक्अभिप्रायना जोरे ज चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रता