Atmadharma magazine - Ank 083
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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ः २३६ः आत्मधर्मः ८३
परमात्म–प्रकाश–प्रवचनो
(गतांकथी चालु)
(१७७) पोतानुं द्रव्य साध्य ने पर्याय साधन
आ चैतन्यचमत्कार चिंतामणि भगवान एवो छे के एक ज क्षणमां पोताना चैतन्यसामर्थ्य वडे त्रणकाळ
त्रणलोकना पदार्थोनो पत्तो मेळवी ल्ये, छतां तेमां विकार थाय नहीं. संतोने पण ध्यान करवायोग्य एवो आ
आत्मा छे, ते आ देहमां असद्भूत व्यवहारनयथी रहे छे. परमार्थे तो पोते पोताना स्वभावमां ज स्थित छे. माटे
हे शिष्य! तुं एवा तारा स्वभावनुं ध्यान कर. तारुं द्रव्य ज तारे साध्य छे अने तारी निर्मळदशा ज तेनुं साधन
छे. तारी निर्मळ अवस्थारूप साधनद्वारा तारा द्रव्यने ज साध्य बनाव. तारा त्रिकाळी तत्त्वनी प्रतीत वगर तुं
निर्मळदशा कयांथी लावीश? परमांथी के विकारमांथी तारी निर्मळदशा आववानी नथी. अवस्थाद्वारा त्रिकाळी
स्वभावने साध्य करतां निर्मळदशा थई जाय छे. आत्माने पोतानो परमात्मस्वभाव ज आदरणीय छे, ने तेना ज
आश्रयथी निर्मळता थाय छे. ए परमात्मस्वभाव सिवाय कोई उपादेय नथी.।। २६।।
(१७८) सम्यग्ज्ञान वडे शुद्धात्माने जाणवानी प्रेरणा
हवे श्रीगुरु एवा आत्मतत्त्वने जाणवानी प्रेरणा करतां शिष्यने कहे छे के–हे योगी! जे शुद्धात्माने
सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रवडे देखवाथी पूर्वे उपार्जन करेलां कर्मो नाश थई जाय छे तेने तुं केम नथी जाणतो?–अर्थात्
हवे तेने ज जाण. अहीं प्रभाकरभट्टने ‘योगिन्’ एवुं संबोधन कर्युं छे.
(गाथा–२७)
जे दिट्ठे तुट्टंति लहु कम्मई पुव्व कियाइं
सो परु जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइं।। २७।।
भावार्थः– जे शुद्धात्मस्वरूप परमात्माने सदा आनंदरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिरूपी निर्मळ नेत्रवडे
देखवाथी तुरत ज पूर्वे अज्ञानदशामां बंधायेलां कर्मोना चूरेचूरा थई जाय छे एवा सदानंदी परमात्मा देहमां
वसता होवा छतां पण हे योगी! तुं तेने केम नथी जाणतो? अज्ञानदशामां बंधायेलां कर्मो ते परमात्माना
ज्ञानथी ज नाश पामे छे.
(१७९) पर्यायद्रष्टिथी संसार छे ने द्रव्यद्रष्टिथी मुक्ति छे
आ आत्मा सदा आनंदरूप छे; रागादि विकारनी आकुळता आत्मस्वभावमां नथी.–आवा
आत्मस्वभावने अंतरमां वळीने तुं जो. अंतरस्वभावना अवलोकनथी पूर्वे उपार्जेलां कर्मोनो शीघ्र नाश थई जाय
छे. आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ एकरूप ज्ञायकबिंब छे. ते त्रिकाळीस्वरूपमां बंध–मोक्ष नथी; बंध अने मुक्ति ते
भ्रांति छे. जो के पर्यायमां बंध अने मुक्ति छे खरां, तेनो सर्वथा अभाव नथी; परंतु बंध अने मोक्ष बंने क्षणिक
अवस्थाओ छे, ते अवस्था जेटलुं आखुं त्रिकाळी द्रव्य नथी. त्रिकाळी द्रव्यने एक पर्याय जेटलुं मानी लेवुं ते
पर्यायद्रष्टि छे, अने ए पर्यायद्रष्टि ते मिथ्यात्व छे. माटे अहीं द्रव्यद्रष्टि कराववा बंध–मोक्षने भ्रांति कह्यां छे–एम
समजवुं. अने ए रीते पर्यायद्रष्टि छोडावीने त्रिकाळ एकरूप शुद्ध आत्मानी द्रष्टि करावी छे. ए द्रव्यद्रष्टिथी ज जीव
मोक्षदशा पामे छे. पर्यायमां बंध अने मोक्ष एवां बे पडखां छे ते त्रिकाळी स्वभाव नथी, अने ते पर्यायना भेद
सामे जोतां त्रिकाळी स्वभावनो अनुभव थतो नथी. योगसारनी ८७ मी गाथामां कहे छे के–
‘बंध–मोक्षनी भ्रांतिथी वधे जीवना कर्म,
लागे सहज स्वरूपमां तो पामे शिवशर्म.’
बंध अने मोक्ष एवी पर्यायद्रष्टि ते भ्रांति छे, ने ते भ्रांतिथी जीवना कर्म वधे छे. त्रिकाळी सहजस्वरूपमां
बंध–मुक्ति नथी. एवा सहजस्वरूपना ध्यानथी ज कल्याणरूप मुक्ति थाय छे.
(१८०) महिमास्वरूप चैतन्यने जाण!
आत्माना त्रिकाळी स्वभावनो स्वकाळ सदाय एक ज प्रकारनो छे, ते स्वकाळमां बे प्रकार ज नथी.
पर्यायना स्वकाळमां बंध–मोक्ष छे. त्रिकाळीस्वभाव सत्तारूप छे, तेनुं जेने माहात्म्य आवे ते जीव स्वभाव तरफ
वळे, अने स्वभाव तरफ वळतां तेना कर्मोना शीघ्र सेंकडो टुकडा थई जाय. निजस्वरूपने देखवाथी ज कर्मोनो
नाश थई जाय छे. निजस्वरूपने देखवुं–तेमां ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी जाय छे. हे योगी! आवुं
महिमावंत तारुं