भिन्न छे. आत्मा ज्ञानस्वभावी शुद्ध छे–एवी रुचिनुं अंतरमां परिणमन थवुं ते ज आत्मा छे. पुण्य–पापपणे
परिणमन थवुं ते खरेखर अनात्मा छे. वर्तमान ज्ञानदशा स्वभाव तरफ वळीने अभेद थई त्यां ते द्रव्य–
पर्यायनी अभेदताने आत्मा कह्यो, तेनुं नाम ज सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र छे. ज्ञातानी
अवस्था ज्ञातामां एकमेक थई ते धर्म छे, ने ज्ञातानी अवस्था विकारमां एकत्व थाय ते अधर्म छे. जे जेनाथी
लाभ माने ते तेनाथी पोताने जुदो माने नहि. जेणे विकारथी आत्माने लाभ मान्यो तेणे विकारथी आत्माने
जुदो न मान्यो पण एक मान्यो, विकार ते ज हुं–एम मान्युं, एटले तेने विकारथी भिन्नता करवानी ताकात
नथी. पहेलां श्रद्धामां आत्माने विकाररहित मान्या वगर अने ज्ञानमां आत्माने विकारथी भिन्न जाण्या वगर
विकारथी जुदो पडशे शी रीते? अने ए विना मुक्ति कयांथी थशे? माटे पहेलां विकारथी भिन्न ज्ञानस्वभावने
ओळखीने तेनी श्रद्धा करवी ते ज मुक्तिनो प्रथम उपाय छे, ए सिवाय बीजी कोई रीते मुक्तिना उपायनी
एटले के धर्मनी शरूआत थती नथी.
आत्माने परथी, निमित्तथी, पुण्य–पापथी के पर्यायबुद्धिथी लाभ थाय एम मानवुं ते क्रोधादिभाव छे.
होय तो ते आत्माना स्वभाव उपरनो क्रोध छे. विकारनी रुचि अने आत्माना स्वभावनी अरुचि ते ज अनंत
क्रोध छे. आत्माना ज्ञानस्वभावने अने विकारने जुदा ओळखीने आत्मानी रुचि करे ने विकारनी रुचि छोडे तो
ते क्रोध टळे.
अहीं आचार्यदेव आत्मा अने विकारनुं जुदापणुं समजावे छे. ज्यां ज्ञानस्वभावनी रुचिपणे परिणमन
विकारनी रुचिपणे परिणमन थयुं त्यारे ते क्रोधादिथी भिन्न ज्ञान अज्ञानीने भासतुं नथी, माटे क्रोधादिनुं थवुं ते
ज्ञाननुं पण थवुं नथी. ए रीते ज्ञान अने क्रोध भिन्न भिन्न छे. ज्ञान ते आत्मा छे, क्रोधादि ते आत्मा नथी.
क्रोधादि भावो घटता जाय छे, ने क्रोधादिभावो वधतां ज्ञान घटे छे–माटे ज्ञान अने क्रोध अत्यंत जुदा छे. ज्ञान छे
ते क्रोध नथी, क्रोध छे ते ज्ञान नथी.
हुं त्रिकाळी ज्ञाता छुं ने विकार एक समयपूरतो छे ते हुं नथी, एम जेने विकारबुद्धि टळीने स्वभावबुद्धि
पण ‘हुं क्रोधादिरूपे थाउं छुं’ एम तेने मालूम पडतुं नथी; बीजी रीते लईए तो अभेदस्वभावसन्मुखनी द्रष्टिथी
परिणमतां, ‘रागादि व्यवहार ते मारुं कार्य ने हुं तेनो कर्ता’ एम ज्ञानीने प्रतिभासतुं नथी. अज्ञानीने ‘रागादि
व्यवहारनो हुं कर्ता ने ते मारुं कर्म’ एम अज्ञानथी प्रतिभासे छे. साधक धर्मात्माने, विकार होवा छतां,
‘स्वभावसन्मुख जे श्रद्धा–ज्ञान थया तेनो हुं कर्ता ने ते मारुं कर्म’ एम अभेद कर्ताकर्म प्रतिभासे छे. पण
क्रोधादि मारुं कर्म ने हुं तेनो कर्ता–एम तेने ज्ञान साथे क्रोधादि एकपणे थता भासता नथी. आवुं जे ज्ञान अने
विकारनुं अपूर्व भेदज्ञान ते ज प्रथम धर्म छे. श्री तीर्थंकर भगवान माताना गर्भमां आव्या त्यारथी तेमने एवुं
भेदज्ञान हतुं; ए भेदज्ञानना प्रतापे ज तेओ केवळज्ञान अने मुक्ति पाम्या छे. *
लीधे, धार्मिकोत्सवप्रसंगे ‘स्वाध्यायमंदिर’ टूंकुं पडतां जेम ‘भगवान श्रीकुंदकुंद प्रवचन मंडप’ बंधायो; तेम
धार्मिकोत्सवादि प्रसंगे तत्त्वचर्चा, प्रतिक्रमणादि धार्मिक क्रियाओ माटे बेनोने मकाननी घणी खेंच हती, तेथी ते
कायमी अगवडता दूर करवा बेनो माटे स्वाध्यायमंदिर जेवी ‘श्री कुंदकुंद श्राविकाशाळा’ बंधाय छे. ‘कहान
किरण’ नामना मकाननी बाजुना टेकरा उपर आ मकान बंधाय छे.